केशव की काव्य - कला | Kashav Ki Kavya Kala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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टीकाकार दर रामकथा बड़े विस्तार से वर्खित है । इसका स्वरूप तो प्रबंघ-काव्य का- सा है परंतु कथा का प्रवाह प्रबंध काव्य के झनुरूप नहीं हुआ । अलंकारों को झनावदयक मददर्व दिया गया है । अतः गंसीर तथा मार्मिक वैसी न हो पाई । चरित्र चित्रण इत्यादि में भी चुटियाँ रह गई हैं । केशव दरबारी कवि थे । दुरबारी रीति नीति का उनको झच्छा अनुभव था । हसी के फलस्वरूप राजसी ठाटबाट, राजनीतिक कूटनीति इत्यादि के वर्णन बहुत ठीक उतरे हैं । द्रबारियों का संभापण-कला पर भी स्वाभाविकतः अच्छा श्धिकार रहता दै । इसी कारण राम्च॑द्िका में संवादों का. निर्वाह अच्छा हुआ है । संवादों के प्रसंग में पात्रों की परस्पर मर्यादा इत्यादि का भी ध्यान रखा गया हे । इनके-से संवाद कोई प्राचीन कवि नहीं लिख सका । बुंदेलखंड, रुददेलखंड इत्यादि प्रदेशों में इस झंथ का श्रब भी बहुत प्रचार है । प्राचीन वयोबद्ध साहित्यिक इस घ्रंथ पर बड़ी घामिक श्रद्धा रखते हैं। उनका विश्वास है कि इस ग्रंथ का पाठ करना बहुत ही शुभ है । यह बात तो ्रव तक देखी जाती है कि इस का अध्ययन करनेवालों का साहित्य में प्रवेश शीघ्रता से होता है । कविप्रिया तथा रसिकप्रिया--ये दोनों पुस्तकें क्रम से श्वलंकार तथा रस पर हैं । केशव के पहिले भी इन विषयों पर ग्रंथ रचे जा चुके थे। परंतु विषय के सम्यक्‌ निरूपण को दृष्टि से इन पुस्तकों का बहुत महत्व नहीं है । संस्क्तसाहित्य में काव्य-रीति पर दो प्रकार की पुस्तकें लिखी गई हैं । कुछ में रस, श्रलंकार इत्यादि के शास्त्रीय गबेपणा-पूर्ण विवेचन पर ध्यान दिया गया है । काव्य-प्रकाश, साहित्य-दण इत्यादि ऐसे हो अंथ हैं । शूसरी वे पुस्तकें हैं जिनमें कवियों की सहायता के लिये कुछ शिक्षात्मक विवेचन किया गया है; जैसे कविय! को किन-किन चस्तुश्यो तथा दृइयों का वर्णन करना चाहिए, इनका वर्णन करते समय क्या क्या कहना 'चाहिए, तथा शब्द किस प्रकार के चुनने चादिएँ, इत्यादि । इस प्रकार की पुस्तकों में काव्य मी मांसा, काव्य-कल््पलतावृत्ति, झालंकार शेखर




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