श्री भागवत दर्शन | Shri Bhagwat Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भागवती कथा महिमा खीर भावानुसार्‌ पस ( १८ ) नैतन्मनस्तव कथाहु विकुएठनाथ सम्प्रीयते दुरिष दुष्टमसाधु तीव्रमू । कामातुरं दर्षशोकमयेपणातेम्‌ तस्मिन्‌ कथं तये गतिं विश्वशामि दीनः ॥क (श्री मा० ७ स्कू० € भ० ३६ श्लोक) छप्पय पहिली गौठ अन्तमहँ জানত पएूटी। ग्रत योनि सप्ताह भागवत सुनि के छूटी ॥ धुन्धुकारि घरि दिव्य रूप सम्मुख जब आयो | श्रोता सबरे चक्रित भये स्वर॒मधुर सुनाया ॥ धन्य धन्य सप्ताह पनि, धन्य भागवत चष हरनि । ` करथो कतारथ नूर अति, घन्य घन्य गोकरन उनि ॥ & भगवान्‌ की स्तुति करते हए प्रह्मादजी कह হই ই--/'ই নত नाथ ! मेरा जो यह मन है उसकी प्रोति झापक्री कप्रनोय कथाप्रों में नही है । यह राग द्वं पादि दोषों से दूषित भ्ति भ्साधु, कामातुर, हप॑ शोकश्मय तथा विविधि तापं भोर पृत्रेषादिवेएपणाप्ों से सदा व्याकुल बना रहता है । इम ऐसे कलुपित चित्त से मैं प्रति दीत-हीन किस प्रकार झापके स्वरूप का चिन्तन कर सकता हैं स्वरूप बिन्तन तो सागवतो च्कथाओं के श्रवण से ही हो सकता हे 1”




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