जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय और साहित्य भाग 2 | Jambhoji, Vishnoi Sampraday Aur Sahitya Bhag-2

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Jambhoji, Vishnoi Sampraday Aur Sahitya Bhag-2 by हीरालाल महेश्वरी -Heeralal Maheshwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४७६ ] । [ जाम्भोजी, विष्णो सम्प्रदाय ओर साहित्य संवत्‌ १५४४ में पिता के रहते जसूदानजी को जमीन मिलना इस वात की ओर भी संकेत करता है कि तेजोजी उस समय तक गृहस्थ त्यागकर विष्णोई-साधु वन चुके ये+ । वील्होजी की उपयुक्त कया से कवि का संवत्‌ १५७० तक जीवित रहना प्रमाणित होता है, क्योकि जैतवन्द का निर्माण संवत्‌ १५७० में हुआ था श्रीर उस समय ये जाम्भोजी के साथ वहां गए थे | उसके पश्चात्‌ ये कितने वर्ष श्रौर जीवित रहे, इसका पता नहीं चलता किन्तु श्रागे उद्ध,त्त इनकी एक साखी श्रीर गीत (संख्या ४) से यह ध्वनित होता है कि सम्म- वत: जाम्भोजी की विद्यमानता में ही ये स्वर्गवासी हो गए थे । यह समय संवत्‌ १५७०-७५ अनुमानित होता है। कवि की वंश-परम्परा तो नहीं, किन्तु इनके छोदें भाई मांडगाजी की प्राप्त है3 । रचनाएं :- इनकी निम्नलिखित रचनाएं प्राप्त हुई हैं:- (१) छन्द-४५ (गाया-५, “छन्द-२४, दोहे-२, फवित्त-१४) (२) गीत-१२* (३) साथी-१ (१७ पंक्तियां) ६ १-ताम्रपत्र में श्रकों में १०५० और श्रक्षरों में “पतरासौ” देख कर उस पर सन्देट्‌ किया जा सकता दै किन्तु जांच करने पर उसमें लिखित वातं सत्य सिद्ध हुई हैं। १५०० बीघा धरती श्रव उनके वंगजोँ कै निकटतम दो सम्बन्धियों में बंटी हुई है १२ वीघा वाला कोट श्रव प्रायः खंडहर हौगया है । लाटण्रु में एक टीला श्रव भी “सामौर घोरा” कह- लाता है। उल्लेखनीय टह कि संवत्‌ १५४४ तक लाडणु परगना राटी के श्रविकारमें नटीं रहा प्रतीत होता ह। २-(क) कविराजा द्यामलदास : वीरविनोद, पृष्ट १४८६२। (ख) चारण रामनाय रत्तु : उतिद्ास-राजस्थान, पृष्ट २५० । दे 2 (मोहिल माणाकराव के समकालीन) सेजोजी मांडरणाजी (१४८०-१५७५) जसराजजी लू 'भोजी त राणोजी-> जैसीजी (जैसदानजी)-+सेतसीजी-+ चांपसीजी तथा हाजकर्जी। चांप-सीजी ->लालोजी -+ ऊदोजी -+ दुरगोजी -+ वीरदासजी -+ हरी सिहजी-- “है सिम्भूदानजी -> श्रनोपरामजी -+ ईसरदांनजी -> जुवानसिंहजी -+ सुजांण सिंहुजी-> चतर- दानजी-+ उजीगर्सिहुजी (वोबासर में वर्तमान श्राय-लगभग५५ वर्ष) । ४-५-प्रति संख्या २३ तथा २०१॥। दोनों ही प्रतियों में लिपिकारों ने इन दोनों (জী और गीतों) रचनाओ्रों की कुल छन्द संख्या १६२ दी है जो सम्भवतः अनुप्ट्रप इलोक के आवार पर होनी चाहिए। हि ६-प्रति संख्या २०१, ग्रन्थ साखी” के श्रन्तर्गत ।




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