पाताल - विजय | Pataal-vijay

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Pataal-vijay by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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टू पाताल-पिजय दन्द्र-मेनका देखता हूँ झानफरल तुम्दारा मभिमान बहुत बढ़े चला है सममती दो मेरे बन से तुम्दारे रूप में अधिक शक्ति है इसी के बल पर तुम मेरा तिरस्कार करती दो उपदास करती दो क्यों? मेनका--नहीं मदाराज मेरा यह तात्पर्य कदापि नहीं । दमारे तुच्छ रूप को आापने ही सम्मानित किया है । जहाँ आपका चज् काय्य कर सकता था वहीं केवल लोक-नित्दा के भय से आपने हमारा प्रयोग किया है । इन्द्र -खैर छोड़ो इन यातों को कुछ मनोरखन का साधन होने दो । अधिक कार्य के पश्चात्‌ हृदय और शरीर शिथिल दों जाता है सके लिए किसी उत्तेजना की क्रिसी नशे की छावश्य- कता दोती है । मेनफा--जो आज्ञा गाती है हँस मत मेरे अध पतन पर उधर देख वह भरना भर कर उच्च शिग्वर से नीचे गिर कर घबल मोतियों से शुचि मनहर वसुंधरा की रहा माँग भर 1 हंस मत मेरे अघ पतन पर । हाँ देख हिर्मागिरि पबतवर जिसके शिखर न्यू रहे अंचर सुरसार चन चढ़ चत्ता भूम पर जग-पापों को साथ बहा कर | हैंस मत मेरे अधः पतन पर ।




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