श्रावक का अहिंसा व्रत | Shravak Ka Ahinsha Vrat

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Shravak Ka Ahinsha Vrat by मुन्नालाल शास्त्री - Munnalal Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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গু ऊुदरतकी वस्तु सबको फायदा पटचाता है, चाह उसका उपयाग सजा करे, ताण करे, चाद करे, सादु करे, सकते चपि बद एक रुप हैं। किसीका भेट भार नहीं करती | धर्ममा ऐसी दी অল है | कई भाई घर्मफो एक “है| आ? समचते ह | वे समसते है कि घर एक भयकर छुतकी बाभारी है। जो इसका स्पश करता है, उसका सर्व नाश हुए बिना नई रहता | ससर जात जा নিগুলতনা ক্র हुई नजर आता ह, वे समझने हे कि इसके फठनेमे घ्म नामक बखुका जयरदल हाथ है| मैंने प्रेम ऐसे छख देखे हैं, छोग इसी विश्वास के कारण “इंश्वर! आर “वर्म? नामी उरतुका अलिख टनियामिहा उठानेके लिये कमर कम रहे ६ । ये समझते है कि ईश्वर! आर “' धर्म * नितने जल्दी टानियाके पर्देस २35 जाय उतनाही जल्दी मानव समाजका भा होगा ! जिन युक्तियों के आधार पर इन माइयोंने ' ईश्वर ! जोर “धर्म? को थर्व चद्धाकार टने करा छिपा हे, वे युक्तिय इतना पोची नोर सप हीन हे कि पफ धयै का व्याप्या जाननेगाया वाल्फर मा उना डन सह से कर सक्ता ই) मित्रों | धर्म यदि छूत की जिमारी की तरह होता, उसका फठ इनिया में दु स फैठने वाला, सुब्ययस्पा में हस्तक्षेप करनेयाणा माछूम होता तो तार्यकर अपार और महापुर्प इसकी जड़ मनन्त करने के लिये क्या इतना उद्योग करते ? जिन भाईयेनि श्षात्धों का कुछ भी मनन किया हैं, थे जानते हैं कि धर्म परलाक में सुख देने बाझा ही नहीं पर इहछोक में भी कत्याणकारी है। * ` अपाम व द --------------- हव कत्‌ > शलोए परलोए हिआए सोहाए सम्माएं निमेस्पाए अगुश्गाप्रियत्ताए আশ ও




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