संबोध सत्तरी प्रकरण | Sambodh Stari Prakaran

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Sambodh Stari Prakaran by वल्लभ श्रीजी - Vallabh Sriji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(७) रेसे गुर आप संसार से तिरते है, ओरो को नहीं तिरा सऊते है ॥श॥ गुरु लोह की जहाज सदृश होते हैं. जैसे ोहफी जहा- ज खुद समुद्र में द्वकर रसातल में पहुंचती है, ओर उम्त छोटकी जद्दाज में रहे हुए पुरुषों को भी इबाफर रसात- ल में पहुचादी है, तद्धत पापझारी, नामथारी गुरू फर्मों से भारी हुए आप रूय संघार सथर मे नरक रूप रसातल मे पृहूचते ई, ओर उनके आधित रहे दए जनोको भी न- रफ में पहुँचाते है ॥ उपरोक्त तीन प्रफाररे गुरु के स्वरूप को समझ कर अफ्नीकार करने लायक सदूगुरु की अड्ी- कार करना चाहिये उनहीकी सेवा शुश्रूपा भक्ति फरने से फर्मोसे भव्यात्मा मुक्त होतेह, त्याग फरने योग्य कुगुरुफा त्याग करना ही चाहिये ॥ ३ ॥ अप प्रथम देय के अठारह दूपण पतलाए जातेंएूँ, इन निम्न- लिसित १८ दूषणोंकों नष्ट करने से दी देवपना प्राप्त होतादे शन्‍्नाण कोह मय माण,लोह माया रईय अरई य निद्रा सोअ अलियवयण, चोरि मच्छर भया य॥ ४॥




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