मराठे और अंगरेज | Marathe Aur Eangrej
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
27 MB
कुल पष्ठ :
576
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ११ )
पेशवाई के समय में तोपख़ाने की व्यवस्था प्रशंसा-येग्य
थो । पानशा ने कहों कभी तरूवार ( अथ्चा उस समय की
भाषा में कहें तो तोप ) चलाई थी, बस इसी की5िं पर वे
'पेशवाई के अन्त समय तक तोपखाने के दारोगा के पद पर
बने रहे । तोपों कौ कीर्तिं, प्रे किसी समय की हुई, उन
तोपो की मार पर अवलेबित रहती थी । वतमान में भले ही
उन तोपों से कुछ काम न निकरू सकता हं। | किसी भी
चढ़ाई मे मराठी तोपो की मार का अधिक भय नहों था।
क्योकि एक तो गोरा बारूद के खर्च प० दारोगा की सदा
काक-द्वष्टि लगी रहती थी,दूसरे अधिक फायर करने से तोपों
के फूटने अथवा बिगडने का भय रहता था। इस प्रकार की
पुरानी तोपें और कृष्णछत्तिका ( बारूद ) की कमो होने पर
फिर पूछना ही कया है | हमारी सेना का घेरा यदि किसी
किले पर होता तो सेना के गोलंदाज़ तोप का एक फ्रायर
करके चिलम पोौने के बैठ जाते, फिर घड़ी दो घड़ी
गप्पें मारते, फिर उठते ओर फायर करते और फिर
भरकर बही चिरम पीते ओर गप्पे मारने का धंधा शुरू
कर देते थे। इस तरह दिन में दस पांच फायर करके
तोप के मो्चें पर से उतार देते और समझते कि खूब काम
किया | हमारे इस लिखने में अतिशयोक्ति बिलकुल नहीं है ।
अंगरेज़ प्रेक्षकी ने जे। कुछ लिख रखा है उसोके हमने यहां
उद्धत किया है ओर उस समय का जो पत्र-व्यवहार हमने
देखा है उसपर से इसो प्रकार की का्यं-पद्ति का अनुमान
होता है । सन् १७७४से १७८१ तक पेशवाई सेना भर अंगरेजो
का जो छः व्ष तक रह रहकर युद्ध दहाता सहया उसमे पानशः
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