श्री स्याद्वाद शिक्षण शिविर नवनीत प्रथम - खंड | Shri Syadwad Shikshan Shivar Navneet pratham - Khand

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Shri Syadwad Shikshan Shivar Navneet pratham - Khand by जितेंन्द्र जैन - Jitendra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ও इस पाठ में चार प्रकार के मगल में रदत भगवान सर्व प्रथम स'गल साने गये हैं । इसका कारण यह है कि अरहंत भगवान के द्वारा साक्ञाव भोत्तपरार्भं रूप धसे का प्रवर्तन होता है एव' उन्हीं के द्वारा यह ज्ञान होतादहै कि सिद्ध अगवान भी জনা स्वरूप हैं | अतः उन्हें द्वितीय क्रम में रखा गया ই। मगल रूप साधु को क्रम से दृतीय नंबर पर रखा गया है इसका कारण है कि यहाँ साधु में ही आचाय ओर उपाध्याय परमेष्ठी को गर्सित किया गया दे । वे भी रस्नत्रथ रूप धर्म सांधना में साक्षात्‌ मोक्षमा्ग का अनुगसन कर रहे हैं , एवं लोक में अरहंत की अपेक्षा सर्वकाल मे सुलस रहते हैं. और चौथे न'बर में केवली भगवान द्वारा प्रणोत धमः को मगल स्वरूप कदा गया है क्योंकि वह हमेशा विद्यमान रहता है। यह क्रम एक विशेष तथ्य को भी प्रगट करता है कि अरहंँत , सिद्ध एव' साधु रूप स'गल का किसी समय विरोष एवः स्थान विशेष में असाव भी हो सकता है परन्तु धर्म अपनी उसी गरिसा से রা प्रबत मान रहता हुआ जीबों का कल्याण करता रहता | सगल शब्द्‌ की नियुक्ति दो प्रकार से की जा सकती है पहली ( स'ग ) अर्थात सुख को “लाति” अर्थात देता है; उसे म गल्ल कहते है अथवा सन्त्र अर्थात पाप उसे “गालयग्रति” গান क्षीण या समाप्त करता है उसे सगल कहते है । अतः स'गल शब्द्‌ का शाब्दिक अथ हुआ जो विष्नो का विध्व॑स करके सुख रूप काय की सिद्धि में सहायक हो उसे म'गल कहते ह । वास्तव मे उपर জী स'गल स्वरूप बतलाये गये है उनका चिन्तवन आदि करने से हमारे परिणामो में जो विशुद्धत, खाती है उससे पाप कर्म का अनुभाग क्षीण होमर ঘুষ कर्मः का अनुभाग बंध प्रवल्न हो जाता है । जिसमें निर्विष्न रूप से हमारे कार्य की पूणुता दो जाती है । इसलिए प्रत्येक कार्ण के प्रारम्भ से सगल करना आवश्यक बतताया गया है। इस श्रकार काय के प्रारम्भ में स'गल करने से हमारी विनय की सावना का प्रगटी करण , शुभ पुण्य कर्म का बच




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