महाराजा महादजी सिन्धिया | Maharaja Mahadaji Sindhiya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
154
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना । ७
क ১৮১৬ ~~~ ~ ~ ~ ~ -~ ~~~ ~ ~~~“ ˆ ^
महाराज মী इनकी सुद्वीमे थे । इनकी यह महच्वाकांक्षा थी के छत्र-
पति शिवाजीने जिस कार्य्यकी नीव डाली थी वह सम्पूरणं किया
जाय, अर्थात् भारतम फिरसे हिन्दू-साम्राञ्य स्थापित किया जाय |
इसी उद्देव्यसे इन्होंने मराठी सेनाकों उन्नति देना आरम्भ किया ।
इस सेनाके दो प्रधान विभाग थे। एकमे तो “बारगीर ” अथीौत्
सिपाही थे । ये नियत वेतन पाते थे और पेशवाके अधीन थे।
दूसरा विभाग शिलेदारोका था। ये शिलेदार छोग एक प्रकारके
स्वतंत्र सेनानायक होते थे । ये आप अपनी सेनाएँ सड़ठित करते
थे। इनको कोइ नियत वेतन नहीं मिलता था, पर जो कुछ छठमें
मिलता वह इनको और इनके अनुयायियोकों मिलता था । इसके
अतिरिक्त, इनको जागीर मी मिलती शीं | इन शिलेदारोसे मराठा
राञ्यकी वड उन्नति इई, पर अन्तम यही एक प्रकारसे उसके
हासके भी साधन हए । जिन दूर् दूरके प्रान्तोपर मरि धावा
मारते थे उन सब पर जमकर शासन करना उनके लिये असम्भव
था | इस लिये वे एसी चेष्टा ही न करते थे, प्रत्युत दूरस्थ प्रान्तोके
नरेशों और शासकोसे चौथ ( या उनके वाषिक आयका चतुर्थाश )
लेकर उनके प्रदेरोको छोड दिया करते थै । इससे उनका आपत्य
भी बढता जाता था ओर शासनप्रबन्धका झगड़ा भी न करना
पड़ता था।
सं० १७८४ मे पेशवाने रानोजी शिदे, मलारिराव होल्कर
आर ऊदाजी पवार नामक शिलेदारोकों मालवा प्रान्त विजय कर-
नेके लिये भेजा। उस समय राजा गिरिधर राय नामक एक
व्यक्ति यहॉका सूबेदार था। कुछ कालमे सारा मालवा मराठोंके हाथमे
आ गया ओर इन शिलेदारोकों इसके टुकड़े जागीरमें मिले । इन्दी
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