महाराजा महादजी सिन्धिया | Maharaja Mahadaji Sindhiya

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Maharaja Mahadaji Sindhiya by श्री सम्पूर्णानन्द - Shree Sampurnanada

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना । ७ क ১৮১৬ ~~~ ~ ~ ~ ~ -~ ~~~ ~ ~~~“ ˆ ^ महाराज মী इनकी सुद्वीमे थे । इनकी यह महच्वाकांक्षा थी के छत्र- पति शिवाजीने जिस कार्य्यकी नीव डाली थी वह सम्पूरणं किया जाय, अर्थात्‌ भारतम फिरसे हिन्दू-साम्राञ्य स्थापित किया जाय | इसी उद्देव्यसे इन्होंने मराठी सेनाकों उन्नति देना आरम्भ किया । इस सेनाके दो प्रधान विभाग थे। एकमे तो “बारगीर ” अथीौत्‌ सिपाही थे । ये नियत वेतन पाते थे और पेशवाके अधीन थे। दूसरा विभाग शिलेदारोका था। ये शिलेदार छोग एक प्रकारके स्वतंत्र सेनानायक होते थे । ये आप अपनी सेनाएँ सड़ठित करते थे। इनको कोइ नियत वेतन नहीं मिलता था, पर जो कुछ छठमें मिलता वह इनको और इनके अनुयायियोकों मिलता था । इसके अतिरिक्त, इनको जागीर मी मिलती शीं | इन शिलेदारोसे मराठा राञ्यकी वड उन्नति इई, पर अन्तम यही एक प्रकारसे उसके हासके भी साधन हए । जिन दूर्‌ दूरके प्रान्तोपर मरि धावा मारते थे उन सब पर जमकर शासन करना उनके लिये असम्भव था | इस लिये वे एसी चेष्टा ही न करते थे, प्रत्युत दूरस्थ प्रान्तोके नरेशों और शासकोसे चौथ ( या उनके वाषिक आयका चतुर्थाश ) लेकर उनके प्रदेरोको छोड दिया करते थै । इससे उनका आपत्य भी बढता जाता था ओर शासनप्रबन्धका झगड़ा भी न करना पड़ता था। सं० १७८४ मे पेशवाने रानोजी शिदे, मलारिराव होल्कर आर ऊदाजी पवार नामक शिलेदारोकों मालवा प्रान्त विजय कर- नेके लिये भेजा। उस समय राजा गिरिधर राय नामक एक व्यक्ति यहॉका सूबेदार था। कुछ कालमे सारा मालवा मराठोंके हाथमे आ गया ओर इन शिलेदारोकों इसके टुकड़े जागीरमें मिले । इन्दी




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