समाजवाद | Samajvad

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Samajvad by श्री सम्पूर्णानन्द - Shree Sampurnanada

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मानव-जगन्‌ द करनेवाले, एक भावसे परिचालित व्यक्तियोंकी विना किमी गवास्के दवाबके अपनी इन्छासे, संचालित संस्था, जिसके सब ` सदस्य सवके हितके श्रयत्रफी सफलताके इच्छुक हों । “मानव समाज! का भाव यह है कि यह एक ऐसा संघटन है जिसको सत्रेके छितके लिए मनुप्य-जातिने अपने संयुक्त प्रयन्रसे जन्म दिया है ।” ६४ यह परिभापा बस्तुत 'समम्‌ अजन्ति जना अप्मिन! की बिस्तृत व्याख्या मात है । इसके ठीक होनेम भी कोई विशेष सन्देद्‌ नां दो सक्ता। यदि एक उदेत्य न दो, एक भाव न दो, सवके हितका विचार न हो, यदि सव केवल श्चपने तात्का- लिक सुख या धुनष्छी पूर्विमि लगे हों, यदि सबके प्रयतो कोई एक लदय न हो, तो मनुप्येके रेसे समृहको भीड़ भले ही कट्‌ ले समाज नदी कद स्ने । यदि संघटन ऐच्छिक न हो परन्‌ किसी भ्रकास्‍्के दवाव से हुआ टो ते मौ यह समाज नदीं हो सफता । राज इसी प्रकारका पक संघटन होता ह । सरकार- फ दवाचसे लोग कसी न फिसी सीमातक मिलकर फाम फरते हैं, उनके प्रयत्नों और उद्देश्योम छुछ समता और श्कलक्ष्यता भी देख पडती है पर यह सघटन कृत्रिम होता है। वियोजर शक्तियों बराबर काम करती रहती हैँ और कसी मी कारणसे दायके हट जाने पर संघटित अवयव बिखर जाते हैं । ऐसा संघटन समाज नहीं कहला सफता, इसमे वास्तविक 'सम-अजन! का अभाव है । न पर शब्द मानके अतिरिक्त (मानव-समाज' दै को? शब्दो में तो आकाशका पुष्प भी योता दे, गयेकेः सोगका भी अस्तित्व है। पर चस्तुत्यितिम कहीं मनुष्य-समाज देख पड़ता है ? সকল एक राषर्ट विफोल्ट, ( विक्टर गोलेंवज ) 'भेकढाउन?, अध्याय ९




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