कैसे भूलूं | Kaise Bhunlu

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Kaise Bhunlu by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बुनरते रहे, किन्तु न तो वेतव आया और से मैं सरजू को रुपये दे पाया । दिन, सप्ताह, सास बीतते गये । अब तीसरा मांस भी समात्ति पर था। यै चिन्तित था और सरजू मौन, धीर और अक्षुन्त्र 1 एक दिन शाम की विद्यलय की छुट्टी के बाद मैं घर की ओर जा रहद्या था कि कुछ लोगों को सामने पेड तते खड पराया । यावे बा रही षी~-- नही चुकाया जाता नो एँसे दबयो लिये ? *“लेत परम सु्र ऊपजे लेके दियो न जाय * अजी पूरा अमलदार है; ऐसे अमल खाने की वजाय मिट्टी क्यों नहीं फॉकता '*/ आदि, आदि । पास गया और जो देखा तो माया घूम गया। आँखों के आगे सिरमिरे तैरते सगे--एक फटे ढाट पर एक मटकी पानी की भोर एक मिट्टी फी हेंडिया लिये सरजू बैठा है। लोगों ने बतलाया, “महाजन से ५० रपये त्तीन माह पहले पन्द्रह दिन का नाम सकर अपनी झोपड़ी और एक-दो कासे के बदतन गिरवी रखकर साया था, आज तक नहीं चुकाये, इससे महाजन ने निकाल बाहर किया भौर सामान को तीताम कर दिया 1 सब कुछ समझ गया। द्वदय ने चाहा कि दुसरो के लिए हलाहछ पान करके भी शास्त और विकाररहित इस महायोगी साक्षात्‌ शिव के चरण पकड़ लूं; डिन्‍्तु आगे बड़ने तक तो में प्रर्णतया बिगलित हो गया था । झाँसी से आँपू बहू चत्ते । पाप्त जाकर मैं सरजू से लिपट गया ओर दुछ समय बाद यह ही कह पाया--/उठो सरजू ! चलो, मेरे साथ रहना ।% महाजन का हिंसाथ उसो शिन किसी तरह बेवाक किया। परदे से गाँव बाले कह रहे थे--”मास्टर साहब बड़े सज्जन, दयालु और ने जाने बया-ब्या है 1 मौर मेरा सम्पूणं मानम यदगद था कि उसने सेर में छिएे मारायथ को पा लिया 1 भला बताइए कि नि.स्व होरर भी सुशे सर्वस्व देने दाले उस महान्‌ उपकारी को मैं 'दंसे भूलूँ ?




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