आराधना कथाकोश भाग - 3 | Aaradhana Katha Kosh Bhag - 3

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Aaradhana Katha Kosh Bhag - 3  by ब्रह्मचारी नेमिदत्त जी - Brahmchari Nemidatt Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पारसमणि व संत में, भारी अन्तर जान। बह लोहा सोना करे, वे करते आप समान॥ साथु पुरुर्षो के दर्शन भी महान पुण्योदय से होते हैं, ये चलते फिरते, सदैव फल देने वाले कल्पवृक्ष सम उपकारी होते हैं, जिनागम में कहा है कि- साधुनां दर्शन पुण्यं, तीर्थभूत्त हि साधव:। कालेन फलति तीर्थः, स॒द्यः साधु समागमः॥ विषय-कषाय, आरंभ परिग्रह व सर्व सावद्यो से रहित, चान, ध्यान व तप मे लीन ऐसे बीतरागी संतों का यदि क्षण का भी सानिध्य मिल जाये तो अपने जीवन को धन्य मानना चाहिए तथा अपना तन-मन-धन सब कुछ ন্বীভালহ करके भी इनकी संगति मिले तब भी वह श्रेष्ठभूत साधु संगति करनी चाहिए। क्योंकि महामनीषी, नीतिकारों ने भी कहा है- यह तन विष बेलड़ी, गुरु अमृत की खान। शीश दिये से गुरु मिले, तो भी सस्ता जान॥ सदगुरुओं/दिगम्बर सतो के सानिध्य में रहकर जो आनंद मिलता है, वह आनंद स्वर्गों (बैकुण्ठ) में भी दुर्लभ है। इसीलिये कबीर दास को रोककर यह कहना पड़ा कि- राम बुलावा भेजियो, दिया कबीरा रोय। जो सुख है सत्संग में , बैकुण्ठ में न होय ॥ हम सभी युसुफ सराय/ग्रीन पाकं दिल्ली की दिगम्बर जैन समान का असीम पुण्य उदय हुआ है कि हमे दिगम्बर संते श्री मुनिराज निर्णय सागर जी मह, ज का ससंघ चातुर्मास प्राप्त हुआ । चातुर्मास में हरमे जीवन जीने कौ सही पद्धति का ज्ञान, आबाल-वृद्धों में धर्म के संस्कार, सम्यग्सान व स्वाध्याय की शुभ प्रेरणा, एकान्तवाद की दुर्गन्‍्ध रूप/मिथ्यात्व से मुवित, देव-शास्त्र गुरु कौ भक्ति करने की अपूर्ब लगन, पंचेन्द्रिय संबंधी विषयों से विरक्ति का भाव, कषायों को उपशमन करने का उपाय एवं आत्म कल्याण का पाठ




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