जिनवाणी संग्रह | Jinvani Sangraha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परिजन सा भाः सक भक्ते ब्रह्मचारी हनानदकत अति पुण्य उदब मम आया, प्रभु तुमस दशेन श्या । अ्ंतक तुमको विनजाने, दख पये निज गुण हाने ॥ पाये अनेते दुःखअबतक, जगतको নিজ जानकर। सर्व॑ माषिति जगत हितकर धमं नहि पदिचानकर ॥ भववध कारक सुखप्रहरक विषयमे सुखमानकर । निजपर विवेचककज्ञान मय सुखनिधि सुधा नहिं पानकर ॥१॥ तव पदं মম তম আব, लखिकुमति विमोह पलाये । निजज्ञान कला उर जागी, रुचि पूर्ण स्वहितमें लागी ॥ रुचिलगी हितमें आत्मके, सतसंगमें अब मन लगा। मनमें हुईं अब भावना, तब भक्तेमें जाऊ रंगा ॥ परियवचनकी हो येव गुणि गुण गानमें ही वितपगे। शुभ शास््रका नितहो मनन, मन दोषवादनतें भगे ॥२॥ कब समता उरमें छाकर, द्वादश अनुप्रेक्षा भाकर । ममता- ३




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