जैन इतिहास की पूर्व पीठिका और हमारा अभ्युत्थान | Jain Itihas Ki Purv Pithika Aur Hamara Abhyutthan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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৫] जैन इतिहासकी पूर्व-पीठिका प्रकारकी आवश्यकताये कल्पवृक्षोसे ही पूरी दोज्ञाया करती थीं | अच्छे और बुरेका कोई भेद नहीं था। पण्य और पाप दोनों भिन्न प्रवृत्तियां नहीं थीं। व्यक्तिगत संम्पक्तिका कोई भाव नहीं था ' मेरा ” और “ तेरा ' ऐसा भद्भाव नहीं था| यह अवस्था भोगभूषिकी थी | क्रमशः यष्ट अवस्था बद्री । कब्पवृक्षोका टोप होगया । मनुष्याको अपनी मावद्यकताभाकी पूर्तिके चि भम करना पड़ा । व्यक्तिगत समस्पत्तिका भाव जागृत हुआ । षि आदि उद्यम प्रारम्भ हुए। लेखन आदि कलाओका प्रादुभाव हुआ, इत्यादि । शस प्रकार कमभूमिका प्रारम्भ हुआ। शुद्ध ऐतिहासिक टष्टिसि विचार करनेपर शात होता है कि इस भोगभूमिके परिव- तेनमे कोई अस्वाभाविक्रता नहीं है। बारिकि यद् आधुनिक सभ्य- ताका अच्छा प्राराभ्मिक इतिहास है। जिन्होंने सुवर्णकाल ( ००१९४ 9४८ ) के प्राकृतिक जीवन ( 1.16 ४००० ०1४ 10 1३००० ) का कुछ वर्णन पढा होगा वे समझ सकते है के उक्त कथनका कया तात्पथ हो सकता दै । आधुनिक सभ्यताके प्रारम्भ कार्म मनुष्य सपनी सब आवद्यकताभाको स्वच्छन्द घनजात वुक्षाकी उपजसे ही पृण कर लिया करते थे । वसख्नौके स्थानभ्र वस्कर मर भोजनके लिये फलादिस तृप्त रहनेवाले प्राणियोक्ो धन-सम्पतिसे कया तात्पयं ? सबमे समानताका व्यवहार था। मेरे ओर तरेका भेदभाव नहीं था । क्रमशः आधुनिक सभ्यताके आदि धुरंघरोने नाना प्रकारके उद्यम और कलाओका आविष्कार कर मजुष्योको खिस्राया। जैन पुराणौके अनुसार दस सभ्यताका प्रचार चोदह कुलकरो दारा हुआ | सबसे पहले कुटकर प्रतिश्चतिने सूयं चन्द्रका कषान




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