आधुनिक हिन्दी नाट्यलोचन नयी भूमिका | Aadhunik Hindi Natyalochan-Nayi Bhoomika

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Aadhunik Hindi Natyalochan-Nayi Bhoomika by नरनारायण राय - Narnarayan Ray

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ जिसको सवंसाधारण रूपेण अपने में घटित कर लें। चर्व्यमाण --आस्वादत किया हुआ । अर्थ --रंगमंच पर दिखाया गया अभिनय नाट्य कहलाता है । भावार्थ : रंगमंच पर नटगण अर्थात्‌ अभिनेतुवृन्द अभिनय किया करता है। उसको सामाजिक प्रेक्षक ऐसा समझता है मानो प्राचीन काल की वह घटना अभी आँखों के सामने घटित हो रही हो ।अभिवीत वस्तु के रस का साधारणीकरण प्रक्रिया द्वारा प्रेक्षक आस्वादन करता है। विश्य में विख्यात है कि नटों के कार्य को नाटक (नाट्य) कहते हैं । स्पष्ट है कि अभिनव गुप्त नाट्य व्यापार का साध्य रसास्वाद को मानते हैं। उनकी दृष्टि में ताटक वह कतेव्य है जो प्रत्यक्ष कल्पना एवं अध्यवसाय का विषय बन सत्य एवं असत्य से समन्वित विलक्षण रूप घारण करके सर्वेत्ाधारण को आनन्दोपलब्धि कराता है। डा० रामअबध द्विवेदी ने अभिनव गुप्त के प्रस्तुत नाट्य विचार को पश्चिमी नाट्य चिन्तनमे लक्षित नाट्य भ्रान्ति' (ड्रमेटिक इल्यूजन) का समकक्षी सिद्धान्त बतलाया है । नाट्ग्र भ्रान्ति भी सामाजिक की एवं विशेष मनोदशा का ही नाम है जो नाटक देखते वक्‍त प्रत्यक्ष में अप्रत्यक्ष, अनुकरण में अनु- कार्य के ज्ञान कराने की एक प्रक्रिया है। भारतीय विचारक इसी को सामान्य का विशेष होना या साधारणीकृत होना कहते हैं। ज्ञान की यह प्रक्रिया स्वभावतया आनन्ददायिनी होती है। पश्चिमी नाट्य समीक्षा को नाट्य भ्रान्ति के सिद्धान्त ने जितने व्यापक रूप में प्रभावित किया है, उतने ही व्यापक रूप में भारतीय नाट्य समीक्षा को अभिनव गुप्त के रसास्वाद के सिद्धान्त ने प्रभावित किया है । नादयसमोक्षा के पाश्चात्य प्रतिमान परित्िमी नाट्य-दशंन मे भ्रान्ति भौर अन्विति का सिद्धान्त प्राचीनकाल के ही माना जा रहा है कि नाट्य कला तथा अन्य कलाओं में भी एक ऐसी भ्रान्ति उत्पन्न करने की शक्ति होती है, जी अनुरंजक होती है। होमर के महाकाव्य में एचिलीज की ढाल पर अंकित जोते हुए खेत की कलात्मकता की प्रशंसा इसलिए की गयी है क्योंकि उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वह जोती हुई पृथ्वी है, कोई समधरातल ढाल नहीं है । इसी प्रकार प्लेटो ने एक ऐसे चित्र का उल्लेख किया है जो अंगूर के एक गुच्छे का चित्र है किन्तु वह्‌ चित्र वास्तविक अंगूर के गुच्छे से इतना मिलता जुलता है कि पक्षी उसे अंगूर मानकर उसकी ओर भपटते हैं। तादय अभिनय भी जीवन व्यापार की वास्तविकता की एक ऐसी ही आन्ति पैदा करने के कारण ही दर्शक को आक्ृष्ट करता । जिस ताट्याभिनय में वास्तविकता की श्रान्ति, अनुकृति और अनकार्य का अभेदत्व जितना परिपूर्ण होता है वह प्रस्तुतीकरण दशेक के लिए उतना ही अनन्दात्मक सिद्ध होताहै। कलागत अनुकरण काष्येय अयथाथेमें यथां कौ प्रतीति द्वारा दशेकको পরা १. साहित्य सिद्धान्त, पृ० ६३, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्‌, पटना द्वारा प्रकाशित




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