काव्यांग त्रिवेणी | Kavyang Triveni

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Kavyang Triveni by सिद्धगोपाल - Siddhgopal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ८ 1 किन्तु चरगास्त में दो गुर (53' रखने से गति मधुर टो जाती है और पढने में कर्ण प्रिय हो आती है था: यन्द शुरू पद-पद्म परागा | सःल सुवास सुरुचि अनु शागा ॥ शमिय मुरि मय चूरन चारू | शमन सकल भवरुज परिधारू ॥ चघपेया १०, ८ और १६ के विराम से इसके प्रत्तेक चरए में ३० मात्राये होती है। चरणान्त में एक सगण (৩) तथा ! गुरु का होता आवश्यक है । यथा ० परे प्रमट छृपाला, दीन दयाला, कौशिशव्या-हितकारी। हरपित महतारी, मुनि-मन-द्वाणे, अद्भुत रूप निहारी ॥ लोचन अभिरामा, तनु धनश्यामा, निज आयुध्ष भुज चारी। भूषण वनमाला, मथन विशाला, शोभा-सिन्धु खसरी ॥ तोमर इस छन्द के प्रत्येक चरण मे ६२ मात्रायें होती है अन्त में गुरु लघु बर्णो' का होना आवश्यक है | यथा:-- तब चले बाण कराल। फुकरत जनु, बहु व्याल ॥ कोप्यो समर श्रीराम | चले विशिख निशित निकाम || न्दर १५६ और १२ पर विराम्‌ देकर इसके प्रत्येक चरण में रुप मात्रायं होती हैं। चरणान्त में दो शुरू वर्ण को होना आवश्यक है | इसे सार छंद भी कहते है। यथो:- हे अखिलेशवर दयानिशे प्रभु, संत्पथ हमे दिखाओ । सत्वर शान भानु प्रकडे वर, तम अशान मिद्दाश्री ॥




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