हिन्दी साहित्य में भ्रमरगीत की परम्परा | Hindi Sahitya Me Bhramargeet Ki Parampra

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Hindi Sahitya Me Bhramargeet Ki Parampra by सरला शुक्ल - Sarala Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मपर-गीत की परम्परा “कविता ही मनृप्य के दय को स्वाथ-सम्बन्धों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भाव-भ्रूमि पर ले जाती है जहाँ जगत्‌ की नाना गतियाँ के गारिकि स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभृतियों का संचार होता है |५३५८५६ इस अनुभूति योग वे, 5भयास से हमारे मनोविकारों का परिष्कार तथा शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है।” # अतः काव्य का बारतयिक उदर्य मानव का मानव से, तथा मानव का इतर सृष्टि से सम्बन्ध स्थापित करना हुआ और यह सम्बन्ध भी हृदय की उन कोमल भावनाओं पर निर्भर होना चाहिये जो अ्राणी की रुचेतन संज्ञा को सार्थक करती हैं | काव्यल्टा इस उद्देश्य की पूर्ति के हेतु अपनी कृति का आधार मार्मिक स्थलों को बनाता है | श्रतः जिस काव्यधारा के तट पर ऐसे मार्मिक स्थलों की संख्या जितनी अधिक होगी, मानव जाति उस धारा का उतना द्वी अधिक रूम्मान करेंगी | कवि-हृदय तो ऐसे ग्रभावोत्पादक तथा मार्मिक स्थलों पर अधिक रमता ही है | कृष्णचर्ति में ऐसे स्थल प्रचुर संख्या में है. | यही कारण है कि पीौराशिक कथाओं को अपने काव्य का विपय बनानेवाले कवियों में कृष्ण-काव्य-घारा के कवियों की संख्या अपरिमित है । कृष्ण काव्य के रचयिताओं में एक बात दशनीय हे कि ये भक्त-कवि योगिराज कृष्णा की बाल और पीगण्ड ध्षत्तियों के ही गुणगायक है| इनका ` चित्त कृष्ण के आनन्द-स्वरूप और उसकी लीौलाओं में ही अधिक रमा है | इन कवियों का सर्वस्व माखनचोर और चीरापहारी नंद-खुबन की एक त्रिभंगी छुटा ने ही हर लिया था, फिर भला ऐश्वय-स्वरूप द्वारिकानाथ का ध्यान उन्हें कहाँ से होता | ये उसी ब्रज-कृष्ण के गुृण-नौतेन में जग गये | कृष्ण की इन दोनों ही कीलाओं मे रसराज “गार का प्राच्यं रहा है, अतः साहित्य- # रपमचन्द्र शुक्ल ( प्वित्तामनि प्र० आ० पृष्ठ १४१) है




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