ऋतम्भरा | Ritambhara

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Trtmbhra by उदयनारायण तिवारी - Udaynarayan Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी की उत्पत्ति करके श्रज आदि प्रान्तिक भाषाओं से लिये जाने लगे । इस प्रकार उदीच्य और मसध्यदेश, अर्थात्‌ पंजाब और हिन्दुस्तान के पश्चिमी प्रांत की भाषाएँ मिलकर एक नवीन रूप में प्रकट हुई | साचारणतः हिन्दुस्तानी मुग़लों के बदौलत सारे भारतवर्ष सें फैली । बजसापा आदि आचीन और साहिस्यिक बोलियो के साथ-साथ यह भाषा हिन्दू-साहिस्यों में भी व्यवहृत होने लगी । अन्त में कलकत्ता शहर में अंग्रज पंडितों की चेष्टा से गद्य साहित्य की भाषा खड़ी बोली हिन्दी ही हो रद्ध! इस समय हिन्दी की प्रतिष्ठा वदती जाती है--उत्तर-भारत की संस्कृतिमूलक प्रगति का एक प्रधाने वाहन या साधन या माध्यम बनकर इस भसापा की जय सर्वत्र हो रही है । ऐतिहासिक विवेचन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि डदीच्य और मध्यदेश--पंजाव रौर पदोह--विप्रोप करके मध्यदेश मे--मारतीय श्रायै- सम्यता ने अपनी विशेषताएँ प्राप्त कीं, और इन प्रान्तो की मापा युरा- युग मे स्व॑जनगृदीत शरीर सत॑जनसमादत हुद-संस्त, पालि, शौरसेनी, সম, बजभापा; फिर गौरसेनी प्रभावयुक्त पंजाब की बोली, हिन्दुस्तान मे प्राकर शौरसेनी की दुहिता स्थानीय चज आदि बोलियों से सिल-जुल- कर हिन्दुस्तानी या हिन्दी वनी ! इस भकार हिन्दी को वतमान मर्यादा मिली । मध्यदेश की भाषा की प्रतिष्ठा भारत के इतिहास की एक प्रधान और साधारण बात है। काल की गति से मूल आयभाया ने संस्कत, पालि, शौरसेनी, अपभ्रेश इत्यादि रूप बदलते-बदलते आखिर हिन्दी का रूप ग्रहण किया । प्राचीनकाल में भारतीय सम्यताविशिष्ट वस्तुएँ यानी हिन्दृ-सम्यता में जो कुछ श्रष्ट वस्तुएँ हैं उन सबका उद्धव आयवित ही में हुआ था। मसध्य- काल में जब मुसलमान सभ्यता आई, तब हिन्दू-सम्यता से उसका सिश्रण आर्यावत सें हुआ । आर्यावते की भापा हिन्दी में अरबी, फारसी, और तुर्क का शब्दभंडार इस सिश्नण का फल हैं । इस मिश्नण से भारतीय सम्यता ने नवीन रूप पाया । पा পি




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