उत्तर प्रदेश में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गठित आयोगों द्वारा प्रतिपादित नीतियों तथा राष्ट्रीय शिक्षा निति १९८६ का तुलनात्मक अध्ययन | A Comprative Study Of The National Education Policy 1986 With The Policies Enunciated By The Commission
श्रेणी : शिक्षा / Education
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
72 MB
कुल पष्ठ :
277
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्राथमिक शिक्षा पंडितों और ब्राह्मणों द्वारा प्रदान की जाती थी इसे विद्या दान का एक
संस्कार समझा जाता था। इस स्तर की शिक्षायें मंत्र आदि को कंठस्थ करने का विधान था
तथा साहित्य और व्याकरण का सम्यक बोध अनिवार्य था
उच्च स्तरीय शिक्षा में लौकिक विद्या और परा विद्या का शिक्षण किया जाता था। परा
विद्या में वेद, वेदांत, पुराण, दर्शन, उपनिषद और अन्य आध्यात्मिक विषयों का अध्ययन,
चिन्तन और मनन किया जाता था। इससे शारीरिक ओर मानसिक क्षमताओं का विकास एक.
सम्पूर्ण मानव की ओर ले जाने का आदर्श प्रयास था। वेदांत द्वारा आयुर्वेद, धर्नुवेद आदि की
शिक्षाएं सम्पन्न की जाती थी और वेद उपनिषद मनुष्य कं आन्तरिक चरित्र का निर्माण करते
थे | जिनसे आध्यात्मिक चिन्तन का विकास होता था। शिक्षा एक संस्कार समञ्जी जाती थी `
जो वंश परम्परा से जुड़कर भावीजीवन का भी आदर्श निर्माण करने मँ समर्थ थी | सामाजिक
ओर लोक व्यवहार सेनिक शिक्षा, न्याय ओर दण्ड की प्रक्रियाएं, कलाकृतियों का सौन्दर्य
आदि की रचना ओर विकास वैदिक शिक्षा कं मूल आदर्श थे | ओर उनकी उपलब्धि ही आपत
समझी जाती थी। शिक्षा वर्णं व्यवस्था के अनुसार चलायी जाती शी जिसका स्वरूप
कर्मप्रधान था। महर्षिं पांतज्जलि योग के कर्म से भी सम्बन्धित किया है। “योगः कर्मषु
कौशलम्”“ आज की भांति वर्ण व्यवस्था जन्म उत्पन्न नहीं थी। कर्मोत्पन्न थी | जो शिक्षा के _
जिस स्तर पर पहुंच जाता था उसे उसी वर्णं मँ सर्मपण कर दिया जाता था|
प्राचीन भारतीय शिक्षा निष्कर्षत चरित्र निर्माण ओर कर्मगत नीतियों पर आधारित एसी शिक्षा
व्यवस्था थी जो मानव मं सम्पूर्णतः के लक्ष्य को विकसित कर देवत्व की ओर ले जाती थी
वैदिक काल कोी -थिक्षा में ভিজা ওটি द
प्राचीन भारतीय शिक्षा जगत में विद्यार्थी अन्ते वासी कहलाते थे | अन्ते वासी से तात्पर्य
हे कि विद्यार्थी गुरू ओर आचार्यो के परिवार मेँ ही रहकर विद्याध्ययन करते थे। वे भि सारन
करते, पूजा सामग्री एकत्र करते ओर गुरु के गृह कार्यो का भी किया करते थे अथर्ववेद `
म एसे अन्तवासियों को ब्रह्मचर्य कहा गया है | अर्थववेद की संहीतो मे विद्यारम्भ को उपनयन
संस्कार कहा गया है।' और विद्यार्थी द्वारा अध्ययन की प्रक्रिया की स्वाध्याय । जो विद्यार्थी
ब्राह्मण नहीं होते थे, क्षत्रिय अथवा वैश्य जातियों उपजातियाँ में होने पर भी वे जो स्वाध्याय
1. अर्थर्वेद - 31 - 5
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