समयसार प्रवचन बारहवां भाग | Samyasaar Pravachan Bhag 12
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
146
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[_ समयसारप्रवचन बाहरवां भाग १३ ]
भाववन्धेमेदनवशताका कारण--भावकर्मको मेदनेमें हमारा वक्ष यों है कि
द्रव्यकर्म और शरोर तो परद्रव्य हैं, उनपर हमारा अ्रधिकार नहीं है । ग्रौर, भाव-
हमारे परिणमन है, वे हमारे ज्ञानमें आते हैं, तथा स्वभाव मेरा स्वरूप है, वह
भी ज्ञानमें आता है। तो स्वभाव श्रौर विभाव जो कुछ हमारे ज्ञानमें आते है,
जिनके लक्षणकों हम समभेते हैं, उनका भेद करदें, जुदा-जुदा स्वरूप पहिचान
लें, इसपर हमारा वश है | और, इस ही आधारपर हमारा मोक्षमार्ग
हमें मिलता है ।
मोश्नहेतुकी जिज्ञासा--जो लोग कहते हैं कि बंधकी चिताका प्रवन्ध मोक्षका
कारण हुआ सो बात श्रसत्य है। यद्यपि मोक्षके कारणमें चलने वाले जीवोके
बंधके चितनका अवसर आता है फिर भी बंधके चितन मात्रते मोक्ष नहीं
मिलता । मोक्ष तो बंधके खोलनेसे मिलता है। इतनी बात सुननेके पर्चात्
जिज्ञासु प्रश्न करता है-तो फिर मोक्षका कारण क्या है ? न तो बंधके स्वरूपका
ज्ञान मोक्षका कारण है श्नौर न वंधके विना्चका चितन मोक्षका कारण है, तव
है क्या मोक्षका कारण ? ऐसी जिज्ञासा सुननेपर आचार्यदेव उत्तर देते हैं--
जह वंघे छित्तण य बंधणबद्धो उ पावइ विमोक््ख॑ ।
तह बंधे छित्त.ण य जीवो संपावइ विमोक््खं ॥२६२॥
बंधच्छेदके मोक्षहेतुत्वका भनुमान--जैसे बंधनमें वंघा हुआ पुरुष बंधनको
छेद करके ही मोक्षको प्राप्त करता है इसी प्रकार कर्मव॑धनके वदधसे वद्ध यह जीव
उन वंधोको छेद कर्के ही मोक्षको प्राप्त कर सकता है। अ्रव उसे दार्शनिक भापामें
रूप देकर सिद्ध करते हैं। कर्मबद्ध जीवके बंधतका विनाश मोक्षका
कारण है क्योंकि हेतु होनेसे । जैसे साँकल आदिसे बंधे हुए पुरुषको वंधका छेद
छुटकाराका हेतु ই अर्थात् जैसे सांकलसे बंधे हुए पुरुषका बंधन उस बंघनके
छेदसे ही मिट्ता है इसी प्रकार कर्मवंधनसे बद्ध इस जीवका वचन बंधनके छेदसे
ही मिट सकेगा । ऐसा कहनेपर भी आशयमें यह बात आती है कि मोक्षहेतु है
अपने कर्मोंका छेदन, याने श्ात्माके कर्मोका भेदन ।
कर्वेशब्दका भर्घ--आत्माका कर्म है विकार परिणाम जो आत्माके द्वारा
किया जाय उसे झ्रात्माका कर्म कहते हैं । तो कर्म नाम सीघा विकार भावका हैं,
और पौदगलिक द्र॒व्यकर्मका करमंनाम उपचारसे है। जबकि प्रसिद्धि लोकमें पौदग-
लिक कर्मों के कर्म नामकी खुब है शोर आत्माके रागादिक विकारोंको कर्म कहनेकी
'पद्धति नहीं है। कर्मेका भ्र्थ कर्म, तकदीर, भाग्य, রতন | तो भ्रसिदधि तो कमं
लान्दकी पौद्गलिक द्रव्यकर्मकी है और श्रात्मके भावोमें जो कम शब्द लमाया
जातां उंसको यों समभे कि लगा दिवा -हे 1 অনক্ষি वास्तवे शब्दशास्त्की
हृष्टिसे कम नाम हैः विकारका, रागादिक भावोंका, भोर जगतके रागादिक
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