प्रेम सुधा [भाग 13] | Prem Sudha [Part 13]

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Prem Sudha [Part 13] by मोहनलाल जैन - Mohanlal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाव-श्ररिहन्त को उपासना १३ बिना नही रहता । भ्रष्ट भोजन करने के कारण लोगो कौ बुद्धि भी अष्ट हो रही है । होटलो के कारण भोजनशुद्धि का विचार ही नहीं रह गया है । होटल वालो का एक मात्र लक्ष्य पेसा बनाना होता है। उन्हे खाने वालो के स्वास्थ्य की कोई चिन्ता नही है । बहुत-से होटलो मे तो मास अडे आदि भी काम मे लाये जाते हैं । सौराष्ट्र के অভন্ধাহ तो फिर भी ठीक हैं, वहाँ प्रायः मास, अंडा, मछली श्रादि बाज़ार मे देखने मे नहीं आते । कही-कही तो शुद्ध श्राहार मिलना भी कठिन हो जाता है। परन्तु ध्यान रखना चाहिए कि भोजन का विचारो के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। सात्विक और शुद्ध भोजन से विचारो मे सात्विकता आती है और सात्विक विचार होने पर ही श्रात्मा-परमात्मा सम्बन्धी विचारो का उद्भव हो सकता है । | सज्जनो | आत्मा का विषय शत्यन्त गभीर और सूक्ष्म है आत्मा को समभने के लिए बहुत साधना को आवश्यकता है । आ्रात्मा यदि रूपी वस्तु होती तो उसे आँखो से देख लेते, मगर उस मे रूप नहीं है, उसमे रस, गध और स्प्ञ भी नही है, अतएवं वह किसी भी इन्द्रिय से गम्य नही है। उसे समभने के लिए भअन्‍्तंदृष्टि जागरित होनी चाहिए। आचारागसूत्र मे आत्मा के विषय में कहा है-'सरा तत्थ निवत्तते /' अर्थात्‌ आत्मा वह सूक्ष्म तत्त्व है जहाँ स्वर-बचन निवृत्त हो जाति) श्रात्मा कौ उस वारोक दुनिया मे शब्द का प्रवेश नहीं हो सकता । आत्मा को समभने के लिए स्वर उपयोगी नही होते । वाणी द्वारा उसको अभिव्यक्ति नही हो सकती ।




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