हिंदी वार्षिकी 1960 | Hindi Varshiki 1960

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Hindi Varshiki 1960 by डॉ. नगेन्द्र - Dr.Nagendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ट वाषिकी एक ऐसे आदर्श के आवरण से ढाँक दिया है, जिसका आश्रय महाभारतकार ने भी न लिया था । इसी के आनुषंगिक रूप में कवि ने दुर्योधन और दुःशासन के चरित्रों को ऐसे सूचीभेय कलुष से आवृत कर दिया है कि वे एकदम अविश्वसनीय हो उठे हैं । ऐतिहासिक वैज्ञानिक दृष्टि के ऐसे श्रभाव में यह उत्कृष्ट प्रयत्न कुछ स्थलों पर व्यक्त कवि-कौशल के प्रमाणों की স্যুজলা-লাঙগ হন गया है। भाषा और शौली में भी स्थल-स्थल पर ऐसी क्लिष्टता आ गई है जो काव्य-तत्त्व को विरल कर देती है। ज्योतिष के आधार पर यह वर्णन इसका प्रमाण है : जीव श्रतिचारी हश्रा, नक्षत्र श्रवरणा के निकट! चरमराने लगा बोकिल मंद से रोहिसि-शकद ! सिह-सुख में श्रगिनि-सा कुज मघा पर वक्रा हुश्रा; पुष्य को श्राक्रान्त करने लमा धूमायत विकट | केतु चित्रा पर उदिति होः इन्दु को ग्रसने लये! सिहिका-सुत श्रदिति-युत को निगल कर हंसने लगा ! पड़ गए दो ग्रहुस तेरह विनों के व्यवधान में ; काल-व्याल विशाल श्रपनी कुण्डली कसने लगा ! प्र ऐसी घटाटोप क्लिष्टता कहीं-कहीं ही है। ऐसे स्थल भी '्रौपदी' में यथेष्ट हैं जो रस से प्िक्‍त हैं और काव्य को प्रखरता से दीप्त करते हैं । विशेष रूप से अन्त में महाभारत की सभी ग्रवशिष्ट पात्रियों के शोक का चित्र बड़ी करुणा उप- जाता है। नारी की विवशता की व्यंजना यहाँ बड़ी মালিক ই: सुबला, द्रपदा, पृथा, सुभद्रा, सबने भेंट चढ़ाई, रणचण्डी से तब जेता ने विजय-प्रसादी पाई! नर की हार-जीत का जग में मूल्य चुकाती नारी ! बात मर्स की धर्मराज को श्राज समझ में आई ! और प्रबन्धात्मकता के प्रयत्न की दृष्टि से तो “द्रौपदी” सन्‌ १६६० की विशिष्ट रचना है ही । छायावादोत्तरकालीन रोमाण्टिक कवियों में से डाँ० देवराज और उपेन्द्रनाथ “रङ्कः ने भी इस वर्ष अपनी स्फुट कविताओं के संग्रह प्रकाशित किये है | 'अहक' के संग्रहु सड़कों पे ठले साये का विशिष्ट महततव इस बात में है कि उसके माध्यम से अद्क' बरसों तक अन्य साहित्यिक माध्यमों में उपलब्धियाँ प्राप्त कर एक बार फिर काव्य की ओर मुड़े हैं । इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस संग्रह की




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