धर्मधिर्मविचार | Dharmadharmvichar

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Dharmadharmvichar by ताराचंद - Tarachand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धर्माधर्म विचार । षट्‌ संसारा में गृहिणी नदीः व्याहकी जो मानों हुकुम तिहारा ॥ पैसा बिनु इस हाट मेँ प्यारे चलता नदीं गुज़ारा। चोरी करो कहीं से लावो देशो दान हमारा ॥ ना्हिन मार खायगा मेरी समस्त नारिं गमारा ९1 पुजारी का विलाप । . हाय प्यारी! मारडाला !! तू अधर में लटकाके धन-- -यौवन सर्वेस्व लेकर अब इस प्रकार प्राण लेती है !!! प्रतिष्ठ गयी, ठाकुरसेवा-पूजा बन्द हुई, में यह नहीं जानताथा कित्‌ सु उद्पपे मे दसा धोखा देगी । अव तेरे कारण सुझे नगर छोड़नापड़ेगा। इतना कृह उसके वहां से रोते हुए निराश होकर उठे; कुछ समय में मन्दिर का दिया गुल करके चेले को छोड़ नगर से निकल गये । पंचों ने फिर मन्दिर का प्रबन्ध पं० सुन्नालाल ब्राह्मण के पुत्र पुजारी अमरनाथजी के सिपुरद्द किया । जंब चेला भी गुरुजी के वियोग से तड़फ २ के मर- गया; तब लज्नूबाबूजी ने जो मन्दिरके पासही रहते थे, निम्नलिखित सुहक्ले के पंच एकत्रित किये। সী बाबू हरीसिहजी, भी बाबू लालविहारीसिंहजी, और मियां अलीज़फ़रजी । चेले के बिस्तर में से सिर्फ १०) रु० निकले। सर्वसम्मति से चेले के मरने से पह- लेही इन पंचों ने मन्दिर अमरनाथ प्रुजारीजी के सियुदे किया । चेलेका शरीर ओऔगंगाजीमें भस्म किया गया और पजारीजी से कहा जो बंधान हम लोगों के वहां से




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