हिंदी उपन्यास कला | Hindi Upnayas Kala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कथानक या कथावस्तु २१ होना चाहिए । भ्रन्य कलाझ्रो में जिस प्रकार को शुद्धता का आंदोलन चला है, उसी प्रकार की श॒द्धता उपन्यास के क्षेत्र में लाने के लिए भ्रान्द्रें जीद जैसे लेखक उपन्यास को भी उन समस्त तत्वों से मुक्त करना चाहते हैं, जो विशिष्ट रूप में उपन्यास के लिए अनिवार्य नही हैं । उनकी दृष्टि मे घटनाओं, सयोग और दुर्घटनाओो श्रादि के लिए उपयुक्त स्थान सिनेमा है, उपन्यास नही । (हि० सा० कोर) वर्जिनिया वुल्फ भी उपन्यास को व्यवस्थित और संघटित रूप देना भ्रावश्यक नही समझती । उनकी दृष्ष्ट मे उपन्यास यदि जीवन का चित्र है तो उसे जीवन के समान ही विश्वुखलित और अ्रव्यवस्थित होना चाहिए। उनका विचार है कि जिस प्रकार मन मे अनेक प्रक/र के भाव उदित होते है और उनका कोई क्रम नही होता, उसी प्रकार उपन्यास की क्रिया का विकास भी बिना किसी क्रम के होना चाहिए । सामास्य स्थिति में वे उपन्यास को जीवन का चित्र भी स्वीकार नहीं करती | उनको मान्यता है कि यदि लेखक अपनी रचना को अबनी भावना पर ही भ्राधृत करे और परम्परा को छोड दे तो उसकी रचना का कोई कथानक नहीं होगा, कोई त्रासदी या कामदी नही होगी, प्रेम भर सधर्ष को स्वीकृत परम्परा के भनुसार कोई घटना नहीं होगी । जीवन क्रम में व्यवस्थित वस्तुश्रो का कोई क्रम नहीं है, जीवन प्रकाशमय तेजोदीपत आनन्द का श्रालोक है, एक भ्रदध-शिलमिलाता रहस्यमय कवच है जो हमे चेतना के आरम्भ से श्रन्त तक घेरे हुए है । उपन्यास का क्षेत्र यही रहस्यमय चेतना है, जिसमे लेखक किचित बाह्य तत्वों को समाविष्ट कर लेता है । वजिनिया वुल्फ ने भ्रतश्चेतना श्रौर वैयक्तिकता के श्राधार पर जीवन को नकारने का प्रयत्न किया है भौर व्यक्ति को बेतना को ही प्रधानता दी है । वैयक्तिकता का भाव स्मृति पर निर्भर करता है श्रौर स्मृति समय पर निर्भर करती है। उच्च चेतना के क्षण विगत क्षणों से आते है। इस प्रकार पौर्वापर्य सम्बन्ध बाह्य न सही, किन्तु आतरिक बना रहता है भौर भ्रनन्तता कातीत्र बोध होता है। इस प्रकार उपन्यास की कथा-वस्तु अश्रतश्चेतना के प्रवाह की कालिक मर्यादा को बाँवने का यत्न करती है, जिसमे भ्रन्विति का अ्रभाव तो होता है, किन्तु कार्य-व्यापार का भ्रभाव नही होता । वह बाह्य न होकर भ्रातर होता है ओर भ्रातर होने कै कारण उसका सारा रूप सूक्ष्म भ्रौर तरगमय दहयेता है । तारतमिक कथानक नही होता, उसकी भ्रत्यन्त परिक्षीण रेखा विद्यमान रहती है, जिससे पाठक पूर्वापर सम्बन्ध स्थापित कर चेतना के व्यापार को ग्रहण कर पता दहै। यह्‌ ग्रहण सायास होता है, किन्तु होता श्रवदय है। कल्पना का বল भ्रं तस्चेतना के प्रवाह मे मी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पल्त »




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