साहित्य समाज और भारतीयता | Sahitya Samaj Aur Bhartiyata
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
133
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)थ सर त्य समाज পার भारत यत्त
लभी ¦ श्राइवेरिया का गीत हिसादि पर आ डटा और सहारा [की तप राजस्थार
লা হী ক सका मौ क्यो की व्ल उस्प्पुरी मे सत हुई तो ईरान को शुब्कता
अशावर्ही की चट्टानों पर मिर शुनने लग गयी | भुभेध्य सीभर को फलवत्ती सामध्य
भ्रारत के शाम, अमरूद, संव शोर यन्त्रे भ भा बकी, अटठली, फ्राक्ष और
स्वीटजरलैण्ट के पृष्पा को गंध कमन, कुमो दिदी, बेला, जूही, चसेली और সমাপনী
প্র पैठ गयी । अप्रेरिक्ता का गेहूँ, क्यूबा का जन््ता, पॉलेण्ड को आलू जापान का
चावल, प्रजाब, उत्तर एस, शिद्ार और अगाल में पहली से ही भर गया। कौन सी
তিতা, জীন-্লী আজান, আনেনি जलवायु और कौन-सी वनस्पति उप्त धरा नै अपरत
सीमा मे नहीं समेटी ? सोवा हो या लीडा, हेम हो ধা बस, धरा ने अपना वक्षस्थल्
फाड़ भशुज की 'कझोजो भें शर “दिया है !
हिमाद्रि की विज्ञान गुवाकी--मिरशर सुनेमात, पहकोर्ड, जयल्लिया,
खमिया और सिन््धु की उत्तान तर्गों के मध्य विज्तीर्ण “स्थान दिमादि के शयम्
अक्षर ही तथा सि्धु के अन्तिम 'अज्नरब्धु' को मिलाकर 'हिन्ध आवद से सम्बोधित
ही हिखु स्वः कलाया; জিদ আগালিদ্ষ উল্টাই উল পলা पूर्ण ग्रक्टए हुआ !
क्राएमीर जिसका किरीट है, उत्तर प्रदेश जिसका पक्षरथन पजाव, किन पर्देशिय्रम
जिसको ऋजाएों है और जिका जिसकी कटि, पश्चिमी तथा पर्वी घ।? जित्तकी जत्राए
हैं और कन्याकृमारी जिसके चरण, नंमेंदा जिसकी मेखला है और गंगा जिप्तका हार,
ऐसा पाप्ने मलयानिन ते सुगन्धित स्वस्य, इस प्रतिमा का जिसने विज्ञक् को
प्रकाश दिया, दिशा दी और गुर আভা | লী तो गदगद हो इसके নাল? হজ
पुकार उठे 'भारत | “भा अर्थात शकश जा অনার মুখ 'र' अर्थात् देगा ष्ठ
क्रर्भ्रात् दुर-हर तक । भारत के स्पष्ट अर्थ हुए वहु स्थान जो विश्व को प्रकाश
विधेरता हूँ। भारतवर्ष के तात्मर्थ हुआ वह धरती जो विश्व को জাল देती है रण।
धर्षाक्म की इकाई हें ग्यवद्ध श्रेष्ठ मंस्कृति की रुचता मे लीन है ।
सांध्कृतिक इकाई-मारत का विकास
श्य श्वर की शेक में, अपरदि काल से मानव सुख-डु/ख को अतृथूतिया
गोता चला जाया है । सुख देतेवानी वन््तुओं और परिस्थितियों मे মী লগা
तथा छू ख॑ देनेवाली बल्तुओ और परिस्थितियों से उसे घृणा हुई है ! पक्ृति --भावव
के इसी संघात से नियत, स्स्कार की बतत प्रवाहित भागीरणी, सम्ताज को पते
पूतं दंस, न्प, मज्जन ओर पात्त से सस्फारित करती चली आयौ ইউ | সঙ্গতি
की गोंद में पड़े मनुष्य के रण, प्रकृति के अगूल-निर्देश पर ही चले है शौर कही
शसकी संस्कृति हुई है। भारत को जनपाशु में अमरता का संदेश है, कर्म का पाऊ--
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