पन्चाध्यायी | Panchadhyayi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20 MB
कुल पष्ठ :
406
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावंना ७
জী जिस रूप में देखते है उस कार में बह उत्तनी ही होती है। यह द्रव्य है, ये गुण हैं और ये उनकी
पर्याय हैं ऐसा अलग अछग रूप से उसमें भेद नहीं किया जा सकता । उदाहरण स्वरूप एक वस्त्र छीजिये |
उसमें रूप, रस, स्पश जादि सब कुछ दै। पर यदि कोई कहद्दे कि उन्हें प्रथक् प्रथक् करके बतलाईये ऐसे
जैसे कि खिचड़ी में से दाल, चावछ अलग अलग किये जा सकते हैं तो ऐसा करना कभी भी सम्भव
नहीं होगा । यह तो जाने दीजिये वहां तो यदद बतढाना भी सम्भव नहीं है कि रूप यहां रहता है और
रस यहां रद्दता है। जहां रूप है बहीं रस है और वह्दों अन्य सब कुछ है। इसका अथ यह हुआ कि वह
बद्न जिस प्रकार श्वमग्र भाव से रूप है उसी प्रकार समप्रभात से रस है। केवल कायं भेद से द्वी ऐसा
भेद किया जाता है वस्तुत: उनमें भेद नहीं है।तत्व को अनिवचनीय कद्दने का भी यद्दी भाव है। इस तरह
तात्त्विक दृष्टि से जिचार करने पर वस्तु का अखूण्ड भाव से प्रण करनेवाला निश्चय नय ही उपादेय
ठद्ृरता है उसमें. भेदों की लड़ी ह्लगानेवाला व्यवहार नय नहीं। बस्तु में भेदव्यवद्ार नेमित्तिक है और
अभेद वास्तविक है। उसमें भेद करने के लिये हमें पर की अपेक्षा लेनी पढ़ती है। जिस प्रफार बस्तुगत
भेद बुद्धि में आता है वैसा उसमें मेद कहां है १ यद्यपि यदं यह् कहा जा सकता है कि यदि बस्तु में
वास्तविक मेद् লী ই জা (কহ হল অব কী स्वीकार कर लेने में कया हानि है ? स्रो इसका य
समाधान है कि अनन्त व्यक्तियों का भद्देत भले द्वी न बने पर प्रत्येक व्यक्ति अद्वेतरूप तो है द्वी। उसमें
भेद का निणय करने के लिये जिस प्रकार हमें बुद्धि की सहायता लेनी पड़ती है खस प्रकार एकत्व का
निणय करने के लिये बुद्धि की सहायता नहीं लेनी पड़ती । उसका वह् एकत्व स्वयं प्रकाशमान हो रहा है ।
व्यवहार और निश्चय की चचा समय प्राभ्ृत आदि में भी की है। वहां इनके हमें भनेक प्रकार
ढे प्रयोग दिखाई देत हैं। यथा--
(१) जीव भौर दे6 एक है यह व्यवदारनय है) ओव ओर देद् एक नदी, किन्तु प्रथक् प्रथक्
हैं यह निश्चयनय है ।
(२) वणोदिक जीवकफे ह यह् व्यवहारनय है । ये जीव के नहीं है यहं निश्वयनय है ।
(ই) रागादिक जीवके है यह व्यवहार नय है । ये जव के नहीं ह यह् निश्चय नय है|
(४) शरीर जीवका है ऐसा मानना व्यवहार है और शरीर जीव से भिन्न है ऐसा मानना निश वय है ।
(५) केबली भगवान् सबका जानते और देखते हें यद्द व्यवहार नय है किन्तु अपने आपको
जानते भौर देखते हँ यह निश्चय नय दै।
(६) क्षायिक आदि भाव जीवके हैं. यह व्यवहार नय है किन्तु शुद्ध ज्ञीवके न क्षायिक भाव
होते हैं और न अन्य काई यद्द निधचय नय है।
(७) ज्ञानी के दशन है, ज्ञान है और चारित्र है ऐसा उपदेश करना व्यवहार है और बह न ज्ञान
है, न दशन है और न चारित्र है। किन्तु धरुद्ध ज्ञायक है ऐसा मानना निश्कय है।
यदि अछग अछग विशलेषण न करके इन प्रयोगों को समग्रभाव से देखा जाय तो यह ज्ञात होता है कि
निमित्त सापेक्ष जितना भी विकल्प होता है वह सब व्ववद्दार नय है भौर निमित्तनिरपेक्ष मूल वस्तु
को अभेद् भाव से स्वीकार करनेवाठा विकल्प द्वी निशचय नय है ।
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