श्रमणी | Shramani

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Shramani by साध्वी श्री शशिप्रभा श्री जी - Sadhavi Shree Shashiprabha Shree ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एक धन्य अवसर की प्राप्ति 3 आगमवेत्ता प्रवत्ति्ी महाराज सा० सन्जनेश्रीजी का अभिनन्दन वरते हुए जाज पौन धय नही हो रहा है ? फिर मैं अतिचन भौ इस पावन मगा मे अवगाहन का लाभ प्राप्त करने मे क्यों पीछे रहें ? यह एक ऐसा पुनीत अवसर अनायास ही हमारे हाथ आ गया है कि हमें अपने जीवन वी कुछ तो साथकता हृष्टियत होन लगी है । अयथा सासारिक जीवन मे ऐसे पुण्य अवसर प्राय दुलभ ही होते हैं। भुआसा महाराज विदुषीवर्यां सगजनश्रीजी का जौवन प्रारम्भ से ही सयम और सात्विक भावों से ओत प्रोत रहा है। वाल्यकाल से ही आपधौ ससार से उदासीन तथा अमुखी रही 1 अपने तप॒ सयम, अध्ययन, एवं ज्ञान-दशन-चारित्र के क्षेत्र में जो उपल्धिया अजित वी हैं उनका चणन करने में हम अक्षम हैं। काव्य का क्षत्र होया कि दशन का, साधना वा क्षेत्र हो या कि सामाजिक चेतना वा মহান, सघ सचालन का काय हो या एक्ातिक तपस्या का प्रवतिनीश्रीजी न सभी दिशाआ में अपन अलोक्वि अद्वितीय व्यक्तित्व मौर इतित वौ अमिट छाप अक्ति वी है। आज खरतरगच्छ धम सघ की प्रतिष्ठा, धमचेतना एवं प्रभावना की आप प्रकाश स्तम्भ बनी हयी है। प्रवर्तिनी पद पर आसीन होनर आप अपनी गुरुवर्याश्री ज्ञानभीजी के बताये माग को जालोक्ति एव असारित वर रही है। क्‍या श्रद्धालु घावक-श्राविका, क्या अनुग्रामिनी साध्वी-साधिकाएँ और क्या जन साधारण सभी आपके विनम्र सरल व सहज व्यक्तित्व की छाया के नीचे अध्यात्म-अमृत का परानकर इताथ हो रहे है। भेरे दादाजी सेठ श्री गुलाबच दजी लूणिया जीवनपयात जन शासन के निप्ठवान श्रावक रहे हैं। वे काव्यममन्ञ, धमममन्न एव ततत्वममन धावकरत्न थे । उही की महान भात्मजा शौ सज्जनधोजी मसा नाज उस गुलाव के सौरम वा अध्यात्मस्स से परिवुण मकरद वी भाँति जन- { १९)




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