आकांक्षा | Aakanchha

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Aakanchha by लाल कृष्ण अग्रवाल - Lal Krishn Agrawal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ५) ই ই अकेल्य हूँ । मेरी आकांक्षा का कबण अन्दन है, मेरे मनोभावों का. बलात्कार है, में चाहता हुआ भी नहीं पाता हूँ । परन्तु यह तो है क्षणिक, यह तड़पन भी है केवल बिजली की कौ यर थोड़े दी समयमे, में अपने आँसू को बहाता हुआ सो जाऊँगा निद्रा की गोद मे--भर जब सुबह उड गा লী मेरी सारी पीड़ा कार हो जायगी । मृक्षे फिर कुछ समय के छिए किसी की. भी याद न रदेगी-- मुझे याद तो संगिनी की तन्न आती है जनमे अकरा रहता हूँ, जब मेरी मावनाएँ किसी के साथ केलि क्रीणा का आहान करती हैं, जब में किसी में अपने आपको भूल जाना चाहता हूँ ! मैं क्या करूँ | बेबस हूँ ! मेरी आकांक्षा ने मुझे कहीं का न रख छोड़ा | मेरी आकांक्षा की कभी भी पूर्ति न हुई! हाँ मेरी आकांक्षा की सप्राप्ति भी कभी न हुई! वर्तमान में केबछ स््री ही आकांक्षा का एकमात्र विषय हो सो भी नहीं। मेरी अस्य भी आकांक्षाएँ हैं। मैं चाहता हूँ सुगद शरीर का दोऊँ, मैं चाहता हूँ--युवा से परिपूर्ण रहूँ-मेरे गुण भी अलौकिक हों भर मे न्दर भी ह तो इतना कि--सभी स्त्रियाँ मित हो जाएँ! परन्तु मेरा अभाग्य यहाँ भी बुढ़ंद है। मुझमें सभी अपूर्णता है--मुझमें पूर्णता की कोई निशानी नहीं! मेरी आकांक्षाएं मेरे अन्दर मसोस कर रह जाती हैं ! मैं देखता हूँ कालेज की लड़कियों को, सिनैमा की नायिकाओं को और फिर यहद्द भी तो देखता हूँ-नए-नए आनेवाले . राजदूतों की पत्षिओं और उनकी सुपुन्रियों को ! में क्‍या हूँ | मेरा भाग्य क्या है! मेरी आकांक्षा क्या है--मैं किसे दिखाऊँ | कैसे दूर करूँ | पूर्ण भी हों तो कैसे ! मैं अपनी आकांक्षा पर ही खीजने छगता र| परन्तु क्या कर রব টু । समय को केसे भुला सकता हू | मुझे चाह ह; मुझमें मेरा राग भी




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