हिंदी उपन्यास में नारी - चित्रण | Hindi Upnyash Me Nari Chitran

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अव्याय २ नारी के प्रति उपस्यासकारों के दृष्टिकोण में फ्रमिक विकास प्रेभचन्द के पुर्चे भारतेन्दु-युग उपन्यास-साहित्य का जन्म-काल है। सन्‌ १८७० में हिन्दी नये सचि में इली' और आधुनिक साहित्य के प्रारम्भ के साय-साथ उसके महत्वपूर्ण अंग उपन्यास का भी श्रीगणेश हुआ। वाह्म प्रभावों एवं देश की परिस्थिति के अनुरूप इस समय अनेक प्रकार के उपन्यास छिसे गये, जैसे तिलिस्मी, ऐय्यारी, जासूसी, ऐतिहासिक, पौराणिक और सामाजिक । इत उपन्‍्यासों में चित्रित नारी भी विभिन्न रूपों में सामने आई। उपन्यासकारों ते जिन-जिन दृष्टिकोणों से नारीं-चित्रण किया है उनकी पृ८्ठभूमि में तीन मुख्य प्रभाव लक्षित होते हैं--- (१) वाह्य प्रभाव (२) रीतिकालीन परम्परा का प्रभाव भौर (३) सामाजिक पुनर्जागरण का प्रभाव। इन प्रभावों का मिला-जुला रूप हिन्दी उपन्यासो में दृष्टिगोचर होने पर भी विशेष प्रकार के उपन्यासों में विशिष्ट प्रभाव परिलक्षित होते हैं। देवकीनचन सभी ने हिन्दी में तिलिस्मी और ऐय्यारी उपन्यास लिखने की परम्परा चलाई। इन उपन्यासो की कल्पना पर फ़ारसी के 'तिलिस्म होगरुवा! और फ़ारस की' कया-परापराओं का प्रभाव था। इस प्रभाव के कारण इन उपन्यासों में चित्रित अधि- कांश पात्रों की कल्पना भी फ़ारसी ढंग पर की गई है। इस कारण इन उपन्यासों की अधिकांश तारियाँ भारतीय प्रतीत नहीं होतीं। वे उन सभी मूलभूत प्रवृत्तियों से रहित हैँ जो भारतीय नारी के साथ यु गन्युग से सम्बद्ध रही हैं। उपन्यासकारों ने ऐस्यार तायक और ऐब्यार नायिका के चरित्र-चित्रण में कोई विशेष अन्तर नहीं रखा है। नारियाँ भी पुरुषों के समान ही सेय्यार हैं। वे जाल-फ़रेव, झूठ, चालाकी सभी का उपयोग करती हैं। कैद में जाकर पुरुष और नारी दोनों ही समान रूप से लाचार हो जाते हैं। तिल्विस्म का रहस्य जानने में, वेश बदलते में, झूठ बोलने में, एक-दूसरे को मारते में-नारी पुरुप से किसी प्रकार भी कम दिसाई नहीं देतो, वरत्‌ अपनी कुटिलता के आधिक्य के कारण कहीं कही दो पग जे वषो हुई दुष्टिगोचर होती है। एक नारी दूसरी के प्रति उतनी ही कटु हो सकती है जितना सौंप और नेवछा। चंद्रकान्ता-सन्तत्ति' में घनपति के वेश में कुल्दन किशोरी को जीवित जलाने तक के लिए प्रस्तुत हो जाती है।' यही नहीं, कमलिनी १ रेभकोनरन सतर : चन्द्रकास्ता-संतति খা हिस्सा, चया संस्करण (पृष्ठ ११३) 1




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