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A Descriptive Catalogue Of Manuscripts  by पी० सी० जैन - P. C. Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( # ) অক लाने बनाने फे লিহ द्ुजवत का प्रयोग किया जतिथा। जो नोह के चिमटेके प्राकारं कि होती भी । श्राजकले के होल्डर की नीब इसी का विकसित रूप प्रतीत होती दै । कलभो के चिस जाने पर उसे चाक्‌ से छील कर पतलः कर लिया जाता था, तथा बीच में से एक खड़ा चौरा कर दिया जाता था | जिससे भावश्यकतानुसार स्याही नीचे उत्तरती रहती थी । लेखनियों के शुभाशुभ, कई प्रकार के गुण-दोषों को बताने वाले प्रनेक श्लोक पाए जाते हैं। जिसमें उनकी सम्बाई रंग, गांठ झादि से ब्राह्मणादि बस, भ्रायु, धन, सन्तान हानि, बृद्धि प्रादि के फलाफल लिखे हैं । उनकी परीक्षा पद्धति ताड़पत्रीय युग की पुस्तकों से चली श्रा रही है। रत्न परीक्षा में रत्नों के श्वेत, पीत, लाल भौर काले रग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वेश्य और शूद्र की भांति लेखनी के भी वर्ण समकना चाहिए। इसका किस प्रकार उपयोग करना, इसका पुराना विधान तत्कालीन विश्वास व प्रथाहों पर प्रकाश डालता है ।* प्रकार-- चित्रपट, यन्त्रभ्रादिमे गोल श्राकृतिर्थां करने के लिए एक लोहे का प्रकार होता था । यह्‌ प्रकार जिस प्रकार की छोटी-मोटी गोल भ्राकृति बनानी हो उस प्रमाण मे छोटा-बड़ा बनाया जाता था) भ्राज भी यह्‌ मारवाड वगैरह भँ बनाया जाला है । भाजकल इसके स्थान में कम्पास भी काम में लाया जाता है । झोलिया, उसको बनावट श्रोर उत्पत्ति--प्राचीन हस्तलिखित पृस्तकों को एकधार सीधी लाइन में लिखे हुए देखने से मन में यह प्रश्न उठता है, कि यह लेख सीधी पंक्ति में किस प्रकार लिखा गया होगा ? इस शका का उत्तर यह्‌ श्रोलिया देती है । भ्रोलिया को मारवाड़ी मेँ लहीआबो फाटीऊ के नाम से जानते हैं। लेकिन इसका वास्तविक उत्पत्ति या प्र्थ क्या है ? यह समझ में नहीं आता है ॥ इसका प्राचीन नाम ग्रोलियु मिलता है। श्ोलियु' शब्द संस्कृत झ्ालि 1. ब्राह्मणी श्वेत॒वर्सा च, रक्तवर्णा व क्षत्रिणी । वेश्यवी पीतवर्णा व, श्रसुरीश्यामलेखिनी ॥१॥ पेते सुखं विजानीयात्‌, रक्ते दरिद्रता भवेत्‌ । पीते च पृष्कला.-लक्षमीः,श्रसुरी क्षयकारिरी ।॥२॥ चिताप्रे हरते पुत्रमधोमुखी हरते धनम्‌ । वामे चर हरते विद्यां, दक्षिणालेखिनी लिबेत्‌ ॥३॥ प्रग्रग्रन्थिः हरेदायुमेष्यग्रन्थिहं रेढनम्‌ । ष्ठप्रन्थिहरेतू, सर्व, निम्नन्धिलेंखिनी लिखेत्‌ ॥४॥ नवगुलमिता प्रेष्ठा, प्रष्टौ वा यदि वाऽधिका। लेष्विनी लेखयेन्नित्यं, धनधास्यसमागमः 11811 अ्रष्टांयुलप्रमाणोन, लेखिनी सुषदायिनी | हीनाय हीनकर्म स्थादधिकस्याधिक फलम्‌ ॥१॥ प्राथग्रन्थिर्वरेदायुमंध्यप्रन्थिह रेदवम्‌ । प्रस्त्यग्रम्चि]हं रेत्‌ सौख्यं, निम्न॑न्यिर्ेखिनी शुभा ॥2१॥




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