साठोत्तर वृध्दों की जीवनचर्या एवं समस्याओ का एक समाज वैज्ञानिक अध्ययन | Sathottar Vriddhon Ki Jeevancharya evam Samasyaon Ka Ek Samaj Vaigyanik

Sathottar Vriddhon Ki Jeevancharya evam Samasyaon Ka Ek Samaj Vaigyanik by चंद्रकांता दत्तात्रेय - Chandrakanta Dattatreya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ता क्योंकि 40 वर्ष का व्यक्ति कभी-कभी वृद्ध जैसा प्रतीत हो सकता है और कभी 60 वर्ष का वृद्ध भी एक युवा के समान ऊर्जावान एवं कार्यक्षमता का प्रकटीकरण करता है। अतः यह व्यक्ति की शारीरिक बनावट ते परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि वह किस अवस्था में वृद्ध जैसा परिलक्षित होगा। (1). वृद्धावस्था के मनोवैज्ञानिक पक्ष : वृद्धावस्था का यह पक्ष मूलतः व्यक्ति के विंघार सीखने की भावना, संवेग, सामर्थ्य, क्षमता, वृद्धि चातुर्थय समस्या समाधान एवं सामाजिक व्यवहार जैसे सन्दर्भों के अध्ययन से सम्बद्ध माना जाता है। आनन्द रमन आर.एन. (1982)* का विचार है कि व्यक्ति तब से अपने को वृद्ध मानने लगता है जब उसे वस्तुनिष्ठ अवलोकन, अवधान एवं बौद्धगमवता में परिवर्तन दिखाई देने लगता है साथ ही व्यक्तिनिष्ठ आत्मावलोकन निर्बल हो जाता है। जिससे उसरमें हीन भावना का _ अध्युदय आरम्भ होने लगता है। वृद्धापन शब्द से ऐसी स्थिति का संकेत मिलता है जिसमें वृद्ध और युवा में अन्तर किया जाता है साथ ही वे सन्दर्भ आते हैं जो संरचना तथा प्रकार्य की दृष्टि से कुछ विशिष्ट घटनाओं को जन्म देते हैं जो स्थाई रूप से व्यक्ति की मनोवृत्ति एवं दिनचर्या को प्रभावित करती है। बिरेन जेम्स ई. (1964) ने स्पष्ट किया है कि केन्द्रीय स्नायु व्यवस्था मैं ' होने वाले आंशिक या पूर्ण परिवर्तन, चेतनात्मक ग्राहयता की क्षीणता आदि के प्रभाव से ऐन्द्रििक चेतनता में हास का आभास ही वृद्धावस्था का सबसे प्रबल संकेत होता है यदि वृद्धों एवं युवाओं में तुलनात्मक अध्ययन करें तो ज्ञात होगा. कि प्रायः उत्तेजना की निम्न तीव्रता वृद्धों में होती है जो उन्हें युवाओं से अलग करती है। याददाश्त एवं कार्य में निपुणता का अवस्थानुसार कम होना, सीखने की क्षमता . में कमी. होना. आदि वृद्धावस्था के कुछ मनोवैज्ञानिक सूचक हैं. अतः मनोवैज्ञानिक पक्ष स्वयं जैविकीय एवं समाज-सांस्कृतिक पक्षों से प्रभावित होते हैं । (घर). शरीर रचना एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी पक्ष . दर न हा वृद्ध अवस्था की प्रक्रिया को समझने के लिए अन्य पर्क्षों की भाँति शरीर रचना एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी | स्थितियों को भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। पाठक जे. (1982) के अनुसार मानव शरीर करोड़ों कोशिकाओं से निर्मित है। यदि _ क्रियाशीलता अथवा विकास में




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