भ्रान्तिनिवारण | Brhntinirvaran
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
38
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand){ १५)
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और कारणरूप को भी पथिवी शब्द से छेत हँ। फिर उन का अभिश्राय इम জা
में शद्ध कभी नहीं दो सकता क्योंकि रूप गुण वाला पदाये अग्नि शब्द पे गृद्दीव
৯৬
हता € भारत् कवल चुर् वा बदां से घरा हुआ । तथा पृथिवी स्थानशब्द के
२३० ৬,
„ होने द अग्लिशव्द का ग्रहण परमेश्वर अर्थं म मी यथावत् होवा है | जैतेः-
यः पथिच्यां तिष्ठन् पृथिव्या च्रन्तरोऽय पृथिघी न षेद् धसपर पृथिवी
©
शारीरं पृथिवीभन्तरोऽपमयति स त आत्मा अन्तय्यौम्सरतः ॥
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यह वचन शत० ां० १४ अ० ६ त्रा० ५ फण्डिछा ७ का है कि जिसमें
पएथिवीस्थान शब्द से परमेश्वर का रहण क्रिया दै क्योकि जहां कौ अन्तर्यामी
शः घे परमेश्वर शी विवक्षा दोती है बकं एक जीवके हृद्य फी शअ्रर्पेक्षा से भी
परमेश्वर का प्रण होता ट जेसेः-
स त ्ारमाऽन्तय्यौस्पसूतः ।
अथोत् गौतमि से याक्ञवरस्य कहते हैं कि दे गौतमणी पृथिवी में ठद्ृर
रहा है और उससे पृथक भी है तथा जिसको -पुथिवी नहीं जानती जिस के दा-
रीर के समान पृथिवी है जो पृथिवी में व्यापक होकर उसको नियम में रखता है
बह्दी परमेश्वर अमुत अर्थात् नित्यस्वरूप तेरा जीवात्मा का अन्तय्योमी आत्मा ই।
रने दी से बुद्धिमान् समम ढेंगे कि पण्डितजी लिरक्त का भभिप्राय कैसा जानते हैं॥
पं० महेश०-तथा देवता विषय में उसका कैसा विचार था भागे के प्रमाण
झज्जरेजी टीका सद्दित लिखते हूँ ( यतकामऋषियेसथां० ) जिम्न मंत्र से जिस दृषता
की रतुति कौजाती है वही उस मंत्र का देवता है ( महभारयादेवतायाः ) अत
देवता एक ही है परन्तु उस में बहुतसी शाक्ति होने के कारण अनेक रूपों मे पूजाः
जाता है उसके पस्रिवाय और २ देव उच्च के अज्ञ हैं | श्राचीन अलुक्रमणिकाकार
सिन्न २ मंत्रों के पथक २ देवता विभाग करता है ओर इस का प्रमाण स्वामीजी
ने माना है देखो पष्ठ १ पं० १ | तथा प० २३ पं० १४ इसी विषय की |
परन्तु बाद काट के उश्त के असली अथे के विरुद्ध कद्दते हैं कि सब मंत्रों का
देवता परमेश्वर है अग्नि वायु आदि नहीं यह हिन्दुओं का बड़ा सत्यातुसार धर्म
है कि अनेक देवते एक ईश्वर ही के प्रकाशरूप हैं| इस वात का अमाण ऐतरेयो-
पत्तिषद् में छिल्ा है कि जिसको स्वामीजी भी मानते हैं जैस;--
निहितसस्मामिरेतद्यधावदुक्तम नसीत्यथोत्तरप्रश्नसनुबूहीति 5 |
इत्यादि । 8४ 1४1६॥ 4
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