विपथगा | Vipathaga
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
296
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विपथया १५
“दुसरे दिन--दुसरे दिन मोस्को मे अखुवार से पढ़ा,
बन्द्रियों को लेकर जानेवाल अफसर थे-मेरे पिता [”
उस छोटे-से कमरे से फिर सन्नाटा छाश्यया। वर्षा अब भी
हो रही थो । में विमनस्कसा होकर छत पर पड़ रही बूँ दें गिनने'
की चेष्टा करने लगा ।
उसने पूछा, “ओर कुछ मी सुनोगे १”
मैंने सिर झुकाकर उत्तर दिया, मैन तुम लोगो पर अन्याय
किया ह । वास्तव मे तुम्हे चहुत उत्सर्ग करना पड़ता है । मै अभी
तक नहीं जान पाया धा 1
“हों, यह स्वाभाविक है। एक अकेले व्यक्ति की व्यथा,
एक श्ादमीका दुःख हम सममः सक्ते है । एक प्राणी को
पीडित देखकर हमारे हृदय में सहानुभूति, जगती है--एक हूक
सी उठती है . किन्तु जाति, देश; राप्ट्र ! कितना विराट होता.
हे ! इसकी व्यथा; इसके दुःख से असंख्य व्यक्ति एक साथ হী,
पीड़ित होते है--इसमें इतनी विशालता, इतनी भव्यता है कि.
हम यही नहीं समम पाते कि व्यथा कहाँ दो रही है, हो भी रही.
है या नही |”?
“ठीक है। तुम्हें बहुत दुःख मेलने!|पड़ते है । किन्तु इस
प्रकार अकारण दुःख मोलना, चाहे कितनी दी धीरता से केला
जाय; बुद्धिमत्ता तो नदीं है ।?
“हमारे ठुःख प्रसव-वेदना की तरह हैं, इसके बाद् दी क्रान्ति-
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