विपथगा | Vipathaga

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विपथया १५ “दुसरे दिन--दुसरे दिन मोस्को मे अखुवार से पढ़ा, बन्द्रियों को लेकर जानेवाल अफसर थे-मेरे पिता [” उस छोटे-से कमरे से फिर सन्नाटा छाश्यया। वर्षा अब भी हो रही थो । में विमनस्कसा होकर छत पर पड़ रही बूँ दें गिनने' की चेष्टा करने लगा । उसने पूछा, “ओर कुछ मी सुनोगे १” मैंने सिर झुकाकर उत्तर दिया, मैन तुम लोगो पर अन्याय किया ह । वास्तव मे तुम्हे चहुत उत्सर्ग करना पड़ता है । मै अभी तक नहीं जान पाया धा 1 “हों, यह स्वाभाविक है। एक अकेले व्यक्ति की व्यथा, एक श्ादमीका दुःख हम सममः सक्ते है । एक प्राणी को पीडित देखकर हमारे हृदय में सहानुभूति, जगती है--एक हूक सी उठती है . किन्तु जाति, देश; राप्ट्र ! कितना विराट होता. हे ! इसकी व्यथा; इसके दुःख से असंख्य व्यक्ति एक साथ হী, पीड़ित होते है--इसमें इतनी विशालता, इतनी भव्यता है कि. हम यही नहीं समम पाते कि व्यथा कहाँ दो रही है, हो भी रही. है या नही |”? “ठीक है। तुम्हें बहुत दुःख मेलने!|पड़ते है । किन्तु इस प्रकार अकारण दुःख मोलना, चाहे कितनी दी धीरता से केला जाय; बुद्धिमत्ता तो नदीं है ।? “हमारे ठुःख प्रसव-वेदना की तरह हैं, इसके बाद्‌ दी क्रान्ति-




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