साहित्य का कलार्थ - सौन्दर्य - सिद्धान्त | Sahitya Ka Kalarth - Saundarya - Siddhant
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
242
श्रेणी :
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No Information available about ज्ञानराज काशीनाथ गायकवाड - Gyanraj Kashinath Gaaykavad
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भाषा का अर्थबोधक व्यवहार १५
(प् ३). आ, उ, ऊ, ओ, औ, ऑ' इन स्वरों के उच्चारण के लिए जिव्हा का पश्च
भाग ऊपर की ओर उठता है, इसलिए इनको 'पश्च स्वर' कहा जाता है, जिससे इनके
'पश्च स्वर' होने का अर्थवोध हो जाता है ।
(फ-१), आ स्वर के उचारण मे जिद्डा का पञ्च भाग् थोडा ऊपर उठता है
जिससे जिक्हा और तासु के मध्य अधिके अन्तर बना रहता है | इसलिए জা सदर को
'विवृत्त स्वर' कहा जाता है और उसके 'विवृत्त स्वर' होने का अर्थवोध हो जाता है ।
(फ-२). ऐ, अ, जौ, ऑ' इन स्वरों के उच्चारण में क्रमानुसार जिक्हा का अग्रभाग
(ऐ' के उच्चारण में), जिव्हा का मध्य भाग (अ' के उद्धरण में) और जिव्हा का पश्च भाघ
(औ, ऑ' के उच्चारण में) थोड़ा ज्यादा ऊपर उठता है, जिससे जिव्हा और तालु के मध्य
का अधिक अन्तर थोड़ा कम हो जाता है । इसलिए इन स्वरों को अर्घं विकृते स्रः कषा
जाता है और उनके 'अर्धं विवृत्त स्वर' होने का अर्थमोध हो जाता है ¦
(फ-३) एओ इन स्वरो के उच्चारण में क्रमानुसार जिव्हा का अग्रमाग और पश्च
भाग ज्यादा से ज्यादा ऊपर उठता है, जिससे जिव्हा और तालु के मध्य कुछ कम्म अन्तर
वना रहता है ¦ इसलिए इन स्वरो को 'अर्घ संवृत स्वर' कहा जाता है और इनके আর
संवृत स्वर होने का अर्थवोघ हो সালা ই |
(फ-४). 'इ, ई, उ, ऊ' इन स्वरो के उच्चारण में क्रमानुसार 'इ, ई' के उच्चारण में
जिव्हा का अग्र भाग और 'उ, ऊ' के उच्चारण मे जिव्हा का पश्च भाग सबसे ज्यादा ऊपर
उठता है जिससे जिल्ला और तालु के मध्य बहुत ही कम अन्तर बना रहता है | इसलिए
हु स्वरे को 'संवृत् स्वर कहा जाता है और इनके 'संवृत स्वर' होने का अर्थवोध हो जाता
।
अ-१). ६, ई, ए. ठे इन अग्र स्वरों के उच्चारण में ओछ अपनी स्वाभाविक स्थिति
में खुले रहते हैं, इसलिए इनको 'प्रसृत स्वर' कहते है, जिससे इन स्वरों के 'प्रसुत होने'
का अर्थबोध हो जाता है ।
(ब-२). “3, ऊ, ओ, औ, आ, ऑ' इन पश्च स्वरों के उच्चारण में ओछ वर्तुलाकार
स्थिति में खुले रहते है, इसलिए उ, ऊ, ओ, ओ. ओँ इन स्वरों को 'वर्तुन स्वर' बब्हा जाता
है जिससे इनके 'वर्तुल स्वर' होने का अर्थवोध हो जाता है और आ स्वर को 'अर्ध वर्तुल'
स्वर कषा जता है. जिसंसे उसके “अर्घ वर्तुल स्वर' होने का अर्थबोध हो जाता है | इन
छह स्वरो को वृत्त मुखी स्वरः भी कहा जाता है ।
(ब-३) 'अ' स्वर के उच्चारण मे ओं की कोर्ट विशेष स्थिति नहीं बनती, इसलिए
इसे 'उदासीन स्वर' कहते है, जिससे उसके उदासीन स्वर' होने को अर्थबौध हो जातत है।
(भ-१). 'अ, इं, छ' इन स्वरा के उच्चारण मे क्रम समय लगता है और मुख की
मासपेशियाँ शिथिल् स्थिति में रहती है, इसलिए इनको 'हस्व स्वर' या 'शिथिल स्वर' कषा
जाता है, जिससे इनके 'हृस्ठ स्वर तथा 'शिथित स्वर' होने का अर्थवोव हो जाता है !
(भ-२) 'आ, ई, ऊ, ए. ऐ, ओ, औ, ऑ' इन स्वरों के उच्चारण में ज्यादा समय
लगता है और मुख की मॉसप्रेशियाँ दृढ़ (कठोर) बनी रहती है, इसलिए इनको दीर्ध स्वर
यो दृद स्वरः कदा जाता है जिससे इनके दृढ स्वरः तथा दीर्घ स्वर टोनि का अथवो
हो जाता है ।
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