कर्मवाद और जन्मांतर | Karmavad Or Janmantr

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Karmavad Or Janmantr by हीरेन्द्रनाथ बोस - Hirendranath Bos

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऋमेदाद की युक्ति ॐ निराश-सादि से सजा हुआ हं । इसका एर चह हन्या कि चिरभचक्तित दुःल-बाद ( 7?८इशंफांडए ) स्ेमासों नैराश्य के घने ओँधेरे में परिणव होक्ऋर यूरोप के विशात्ष में विराजमान है। - यूरोप के दशनशाल ने भो जगत्‌ की इस विषमता की आल्लोचना की है। जिन दाशेनिकों ने इसकी छाच-बीन की है उनमें लाइवनिदज्ञ ( 16७८ ) और कट ( ४०६) का मत विशेष रूप से उस्लेखनीय है । लाइवनिदूज्ञ कहते ई कि सृष्ट पदाथमात्र ससीम हेया; क्योकि दृष्टि कते हौ सीमा का ज्ञान देवा है। सीमाहीन सृष्टि हा हौ नहा सकती । अतएव जीव जव सृष्ट पदायै है तव वह भी ससीस हुआ | जहाँ ससीम हुआ वहाँ असंपूर्ण होना दी पड़ेगा । और जीव जब असंपूर्ण है वब्र पाप करना उसके पक्त में निश्चित है; और पाप का फल दुःख बना वनाया है। अतणएव जब सुष्ट पदार्थो से ही संसार चना है तव उस संसार मे दुःख ता रेया ही। जगत में दुःख द्वोने से यह सिद्धांत स्थापित करने की कोई युक्ति नहों रह जाती कि सर्वेशक्तिमाद्‌ स्वेतः पूर्ण परमेश्वर ने इस जगत्‌ को नहीं वनाया है। लाइवनिट्ज़ ने जितनी बाते कषी दई उनमें यदौ दिखल्ताया है कि इश्वर-सृष्ट जगत्‌ से दुःख को स्थान किस प्रकार मिला है। किंतु उन्होने विषमता का क्या समाधान कया? समी जीव अपूर्ण हैं। तव कोई-कोई, अल्पचुद्धि के वश होकर स्तर द्‌ 0 | क य 1१; 91 গু ~ ५




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