कसाय पाहुडं [भाग-12] | Kasaya Pahudam [Bhag-12]

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Kasaya Pahudam [Bhag-12] by गुनाधराचार्य - Gunadharacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) में रखकर ही कहा है । जो क्रोधभाव अधमाससे भी अधिक छह माह तक संस्काररूपसे रहना है वह पृथिवी- को रेखाके समान क्रोध है । और जो क्रोध संस्कारझूपसे सब भवोके द्वारा भी उपशमको नहीं प्राप्त होता है । अर्थात्‌ जिस जीवके आलम्बनसे इसप्रकारका क्रोध हुआ है उसे देखकर जो क्रोध सख्यात, असंख्यात और अनन्त भवोके बाद भी प्रगट हो जाता है वह पर्वतकी रेखाके समान क्रोध है। इसप्रकार यह क्रोघकषायको अपेक्षा विचार है । इसौ प्रकार शेष कपायोकी अपेक्षा भी घटित कर लेता चाहिए । गोम्मटसार जीवकाण्डमे चारों कषायोको कुछ फरकके साथ उक्त सोलह उदाहरणो द्वारा स्पष्ट किया गया है । जिन उदाहरणोको भिघ्नरूपसे लिया है उनमे प्रथम उदाहरण मानकपायसम्बन्धी है । कपायप्राभृतमे जिस मानभावको स्पष्ट करनेके लिये 'लताके समान यह उदाहरण दिया है, गोम्मटसार जीवकाण्डमे उसके स्थानमे 'वेतके समान” यह उदाहरण दिया हैं। कपायप्राभुतमे जिस मायाभावको स्पष्ट करनेके लिये 'दतौनके समान' उदाहरण दिया है, गोम्मटसार जीवकाण्डमे उसके स्थानमें 'खुरपाके समान” उदाहरण दिया है। तथा कषायप्राभुतमे जिस लोभभावको स्पष्ट करनेके लिये 'धूलिके लेपके समान! उदाहरण दिया है, गोम्मटसार जीवकाण्डमे उसके स्थानमे “दारीरके मेलके समान” यह उदाहरण दिया है। इस प्रकार कषायप्राभुतसे जीव- काण्डमे कतिपय उदाहरणोमे फरक होते हुए भी आशय भेद नहीं है। कषायप्राभूतके कथनसे गोम्सट- सार जीवकाण्डमे यह विशेषता अवश्य दृष्टिगोचर होती है कि जहाँ कषायप्राभूतमे इन क्रोधादि चारो कपायोमे- से प्रत्येकका कौन अवान्तर भाव किस गतिमे उत्पन्न करनेवाला है इस बातका उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता वहाँ गोम्मटसार जीवकाण्डमे यह निर्देश स्पष्टरूपसे दृष्टिगोचर होता है कि शिलाको रेखाके समान क्रोध नरकगतिमे उत्पन्न करनेवाला है, पृथिवीको रेखाके समान क्रोध तिर्यञ्चगतिमे उत्पन्न करनेवाला है, धूलिको रेखाके समान क्रोध मनुष्यगतिम उत्पन्न करतेवाला है और जलकी रेखाके समान क्रोध देवगतिम उत्पन्न करने- वाखा ह । इसप्रकार जहाँ क्रोधकी अपेक्षा उक्त प्रकारका निर्देश किया है इसी प्रकार मान, माया और लोभ- की अपेक्षा समझ लेना चाहिए । इसप्रकार उक्त मब विषयका व्याख्यात करनेके बाद चतु स्थान अर्धाधिकार समाप्त होता है । ९ व्यञ्जन अर्थाधिकार कषाय प्राभृतका नौरा व्यज्ञन अर्थाधिकार है । प्रकृतमे व्यञ्जन यह पद “शब्द' दस अर्थका सू चक ह । तदनुसार इस अर्थाधिकारमे क्रोध, मान, माया भौर रोभ इन चागो कपायोके गब्दरूपते पाँच सूत्र- गाथाओमे पर्यायवाची नाम दिये ह । यथा--क्रोधकपायके दस पर्यायवाची नाम--क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, वुद्धि, संन्ना, देप ओर विवाद । टन पर्मायनामोके अर्थको स्पष्ट करते हुए अश्न माका प्ययि- वाची नाम अमं दिया हं तथा विवादके पर्यायवाची नाम स्पर्श और संघर्ष दिये हैं। पाप, अयश, कलह ओर वैरकी वृद्धिका हेतु हौनेमे क्रोधका पर्यायवाचो नाम वृद्धि है । तथा स्पर्धा और सघर्षकी मनोवृत्तिसे दूसरोसे उलझना विवादरूप क्रोधको भूमिका ही बनाता है, इसलिये क्रोधका पर्यायवात्री नाम विवाद है। शेष कथन सुप्रतीत ही है । मानकषायके पर्यायवाची नाम है--मान, मद, दर्प, स्तम्भ, उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कष, आत्मोत्कर्ष, परिभव ओर उत्सिक्त ! परमागममे ज्ञान, पूजा, कुछ, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर इन आठके आलम्बनसे यह ससारी जीव स्वयंको दूसरोसे अधिक मानता है, इसलिए एेसे भावको मान कहा है । इनके कारण सराव पिये हृए मनुष्यके समान यह जीव उन्मत्त हौ जाता हँ, इसलिए मद भो मानका पर्यायवाच्ी नाम है । इसी प्रकार शेष पर्यायवाची नामोके विषयमे जान लेना चाहिए । अन्य कोई विशेषता न होनेसे यहाँ उनका पृथक्से स्पष्टीकरण नही किया है । पहुले क्रोधकषायके पर्यायवाची नामोमे 'विवाद' पदका उल्लेख कर आये है। उसका कारण यह है




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