श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | Sri Utaradhyayan Sutram Vol 1 (2003) Mlj
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
486
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दर्शन शुद्ध है, उसी का चारित्र निर्मल अथवा सुदृढ़ हो सकता है। इसी आशय से आगमो” में कहा है
कि जो व्यक्ति शुद्ध जीव और शुद्ध अजीव तथा जीवाजीव आदि को भल्री-भांति जानता है, वही
सयम मार्ग में निष्णात हो सकता है। इससे सिद्ध हुआ कि दर्शन-शुद्धि के द्वारा ही सम्यक् चारित्र की
उपलब्धि हो सकती है और जिन आत्माओं का दर्शन शुद्ध नही, उनका चारित्र भी निर्मल नहीं। इस
प्रकार उक्त तीनो अनुयोग चारित्र की रक्षा के लिए अभिहित हुए है और उनमे से दूसरा जो धर्मानुयोग
है, उसका वर्णन करने वाला यह उत्तराध्ययन सूत्र है।
उत्तराध्ययन शब्द की व्युत्पत्ति
'उत्तराध्ययन' इस वाक्य मे उत्तर और अध्ययन ये दो शब्द है। इनमे उत्तर शब्द का प्रधान
अर्थ भी होता है और पश्चादभावी भी। तब प्रधान अर्थ मे उक्त वाक्य का यह अर्थ हुआ कि
उत्तर--प्रधान अर्थात् धर्म-सम्बन्धी विषय मे एक से एक बढ़कर है अध्ययन--प्रकरण जिसमे, उस
शास्त्र का नाम उत्तराध्ययन है। उक्त सूत्र के अध्ययनो--प्रकरणो की सख्या ३६ है। इस बात का
उन्लेख प्रस्तुत सूत्र के अन्त मे' तथा समवायाड़ सूत्र के ३६वे स्थान मे किया गया है* और उत्तर शब्द
का पश्चादभावी, उत्तर अर्थात् पश्चात् पढ़ा जाने वाला यह अर्थ भी होता है। प्राचीन समय मे
आचारागादि सूत्रो से इस सूत्र की रचना पीछे से हुई है, कारण कि श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी
ने इसको अन्त समय मे कहा है। इसलिए इन अध्ययनों के समुदाय की उत्तराध्ययन सज्ञा* हुई।
सम्प्रतिकाल मे दशवैकालिक सूत्र के पश्चात् इस सूत्र के अध्ययन की प्रथा प्रचलित हो रही है, इस
हेतु से भी इसका “उत्तराध्ययन' यह नाम सार्थक प्रतीत होता है।
9 जौ जीवेवि वियाणेइ, अजीवेबि वियाणइ |
जीवाजीवे वियाणतों, सो हु नाहीइ सजम ॥ (दशवैका० अ० ४ गा० १३)
२ उएत्तीस उत्तरज्ञाए भवसिद्धीय समए | (अ० ३६ गा० २७०)
३ छत्तीस उत्तरज्ञयणा प० त०---१ विंणयसुय, २ परीसहो, ३ चाउरगिज्ज, ४ असखय, ५ अकाममरणिज्ज,
६ पुरिसविज्जा ७ उरब्मिज्ज, ८ काविलिय, € नमिपच्वज्जा, १० दुमपत्तय, ११ वहुसुयपूजा, १२ हरिएसिज्ज, १३
चित्तसभूय, १४ उसुयारिज्ज, १९ सभिक्खुग, १६ समाहिठाणाइ, १७ पावसमणिज्ज, १८ सजइज्ज, १€ मियचारिया,
२० अणाहपत्वज्जा, २१ समुद्रपालिज्ज, २२ रहनेमिज्ज, २३ गोयमकेसिज्ज, २४ समितीओ, २५ जननतिज्ज, २६
सामायारी, २७ खलुकिज्ज, २८ मोक्खमग्गई, २६ अप्पमाओ, ३० तवोमग्गो, ३१ चरणविही, ३२ पमायठाणाइ,
३३ कम्मपयडी, ३४ लेसज्ञयण, ३५ अणगारमग्गो, ३६ जीवाजीवविभत्ती य।
४ इसी आशय को निर्युक्ति की निम्नलिखित गाथा मे व्यक्त किया गया है। यथा---
कम उत्तरेण पगय, आयारस्सेव उपरिमाइ तु ।
तम्हा उ उत्तरा कलु अज्ज्ञयणा हृति णायव्वा ॥
। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 14 / प्रस्तावना |
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