अन्तर्नाद | Antarnaad

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Antarnaad by वियोगी हरि - Viyogi Hari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छिड़काव ही करती है, उसे उलटने-पलटने का वह भी साहस नहीं करती | फिर तू क्‍यों अपने सतृष्ण लोलुप नेत्रों से देखने के लिये, अधीर हो, उस पिटारी को खोले देता है ? क्‍या तू उस लावण्य-कलिका का निदयता और नीरसता के साथ उपभोग कर उसे अछुण्ण नहीं रखना चाहता ! सावधान ! योंही न छेड़ देना ! वद्द एक अछूती वीणा है । उस पर बाग्देवी ने एक-एक तार अपने निगृढ़ अन्‍्तनांद के द्वारा प्रतिष्ठित कर चढ़ाया है। अन्तःकरण में प्रतिध्वनित स्वर- लहरी उसके तरल तारों का, एक भीनी मनकार के साथ, स्निग्ध श्रालिङ्गन ही करती है, उन पर कठोर घात पहुचाने का वह भी साहस नहीं करती । फिर तु कयां उस अन्तस्तल- नादिनी वीणा को श्पनी टेदी-मेदी मोटी-मोटी ईगलि्यो से छेडेदेता है! क्यात्‌ उसके नाद्‌ का निदेयता श्नौर नोरसता के साथ उपभोग कर उसे अछुण्ण नहीं रखना चाहता ९ सावधान ! योंही न पेर रख देना ! वह एक अछूता आसन है । उसे प्रकृति देवी ने थरुणोदय के हलके रग मंरंग कर, ओस की बूँदों के साथ कल्लोल करते हुए सुकुमार पल्लवं पर, बिछाया है। अधीर भावना उस पर धीरे से बैठ कर साधना ही करती है, कामना-कलुषित पेरों से उसे प्रताड़ित करने का वह भी साहस नहीं करती । फिर तू क्‍यों उस सत्यालोक से आलोकित शुभ्र आसन को कुचलने के लिये उसपर अपने पाप- पंकिल अपवितन्र पैर रखे देता है ! क्‍या तू उसकी खच्छता का [- ११




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