समयसार प्रवचन भाग - 11 | Samayasar Pravachan Bhag - 11

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Samayasar Pravachan Bhag - 11 by मनोहर जी वर्णी - Manohar Ji Varni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| ग, { २६६ ९१ फकर करो । जो तमसे ज्यादा पुस्य बाला हैं उसकी चिता न वर । दर परके सुखी दुःखी करनेके परिणासकी वेकारी-- में दूसरे जीबोंको सुखी करता हूँ? यह मिथ्यापरिणाम हैं क्र्थोंकि मेरे सुखी करनेके यत्नसे मेरे सोचनेके कारण दृसरा सुखी नहीं दोता। में दूसरे जीवॉको ठु'खी करता हूं) यह सोचना भी मिथ्या है क्योंकि सेरे सोचने के कारण दूसरा दुखी नहीं होता है। जेसे पड़ोसमें अनबन हो तो दूसरा पढ़ोसी झपने मनंमें ही ईष्योकी बात्त, दूसरेके विन्नाशकी बात सोचता रहता है । पर देखंता बह यों है कि में तो ज्योफा त्यों हु ओर जिसका बुरा स चता हूं उसका अभ्युदय हो रहा है। एक तो साचने से बुरा होता/नही, दूसरे जो किसीका बुरा सोचता है बह दूसरा चाहे सामान्य स्थितिमे क्यों न हो, उसे यो लगता हैं कि यह तो बहुत बढ़ गया है | में दूसरे को दु खी करता हूः ऐसा परिणाम करना.मिथ्या है । व्यथं विकतपोसे तो श्मपध्यान बनता रहता है, केवल कम वध ही हाथ रहता है । कोई बाह्यका कुछ परिणमन नहीं करता दै, युः फर्म बाव लेता है, खुद दुःखी होता है। खुद अपनी दुर्गति कर लेता है । परके बन्धनके झाशयकी व्यर्थता- में दूसरे को बाधता हूं, यह्द अध्यवसान करना मिथ्या है। देखिये सीता जी का जीय प्रतीन्द्र बनकर रामचन्द्र जी को बांधने आया कि उसमें कम योग पेदा दो जाभ) घर्मसे विचल्नित हो जाये, मोक्ष धमी नन जायें फिर साथ ही साथ मोत्त जायेंगे । चाधनेका बदा यत्न किया, मगर साधभी सका स्या? नहीं बांध सका । परंकी मुक्ति करनेके आशयकी व्यथेता- में दूसरेको मुक्ति भेजता हु; दूसरेको क्मसे छुड़ाता हू, ऐसा भी कोई सोचे तो वह भिथ्या है । दूसरेका कितना ही यत्न फरें उपदेश द्वारा या कुछ ्राम्रह करके, छिन्तु उसका परिणाम यदि षीतरागत्ताका नीं वनता, शुद्ध सम्यग्ज्ञानका परि- णाम जहीं उनता तो आप उसे मुक्ति केसे भेज देंगे ? उसका 'छूटना उसके ज्ञान भोर घराग्यके कॉरण होगा; तम्हारे सोचने के कारण न होगा । परविषयक सर्वभिकक्पोंका सिथ्यापन-- इस कारण में दूसरे को दुःखी करता इ उल) करता हूं, वांता हू, छुड़ाता हू, ऐसा सोचना मिंथ्या है। जसे कोर कट्टे कि में तो आज झआाक शक पृत्न तोड़”गा तो । जेंसे उसका यद्द कईना बाबलापन लगता है इसी प्रकार रह भी बावलापतन्त है कि में दूसरेको दुःली करता हू) सुखी फरता हूं क्‍योंकि पर के फिये, ये परमें फाम नहीं हो सकते है । जसे कि आकाशंसे फूल तोड़ने का फास नहीं ह सेकता है। जंसे झाकाशसे फूल तोड़नेके परिणामसे कोई शथ॑ क्रिया




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