आत्मानुशासन प्रवचन भाग - 2 | Aatmanushasan Pravachan Bhag - 2

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Aatmanushasan Pravachan Bhag - 2  by मनोहर जी वर्णी - Manohar Ji Varni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्लोक ३२ ५५ इन्द्र भी हार गए । उसने अपने म॑चि्योका नास वृहस्पति रक्खा था । अपने युख्य हस्तीके बाहनका नाम ॒ेरावत रक्खा था, सब नकल कर रखी थी स्वर्गोके इन्द्रकी । एेसा यह इन्द्र भी दूसरे राजा्वोके हारा हार्‌ गया। तो यह व्यक्त है कि भाग्य ही षहां सव कायंकारी हो रहा है चौर पौरपं धिक्‌ । माव पुस्यका फल-- अरे इख बल पौरुषको धिक्‌ हो । माना यह कार्यकारी नहीं हैं इससे शिक्षा पराधीन बननेकी नही लेसा है कि भाग्य ही हमारा देवता है । सो भाग्यके हाथ जोड़ते रहो । अरे हाथ जोड़नेसे कहीं भाग्यका असाद न मिल जायगा ? यहां तो यह बात कही जा रही है कि सांसारिक बेसवकी प्राप्तिसें तुम अपने बलका असिमान मत करो) करत त्व फा अभिमान सत करो। यह बात तो उद्याजुसार हुआ करती दै और तुम्हें यदि इन समृद्धियोंकी बाब्छा टो तो पुण्य करो, पवित्र भाव बनाबो, अहिसा; सत्य, अचोये, ब्रहचयं ओर परिप्रहपरिमाणका आदर करो গলা इन पांच पापोका सर्वथा परिहार करो। जो जीव अपने देहबल पुरुपार्थसे ৩২ 2 ২১ दी लौकिक सुख दुःखोकी सेवा करनेका निर्णय बनाये हैं ओर इस ही कारण अपने पुरुषार्थते जेसा बने तसा उपाय करते हैं इन लोकिक सम्त- द्वियोके संचयका, उनको कहा जा रहा है कि संसारिक समृद्धियोके लिये पुरुषार्थ तो निष्फल ই। दृवबलमें बलाधायक भावपुण्य-- प्र्यक्स है; उसीका नास दैव हैं। दूव अनुकूल हो तो प्रुषार्थ भी कार्यकारी है। देवके अनुकूल बिला पुरुषार्थ कुछ कार्यकारो नहीं | कोई चाहे कि हम शरीरबलके प्रतापसे वेभवचान्‌ वन जाये अथवा हम किसी भी मनचाही बातको कर डाले, तो ऐसा नहीं हो सकता | तुम्हें पुरुषार्थ ही करना है. इस कामके लिए तो भावरूप पुरुषा्े करो। देहके वल्लप्रयोगके पुरुषार्थकों कार्यकारी यहां नहीं कहा गया। तुम भावरूप पुरुपार्थ बनाबो, उस पुरुषार्थसे उसका निमित्त पाकर जो पुश्यकर्म बँधेगा उसके उद्यके कालमें तुस॒ रबय सम्रद्धि पावोगे। यहां प्रयोजन भाव- पुरुषाथं करानेका है । तुम पवित्र भाव करो; अपना निर्मल भाष অলালী; किसी जीवको वाधा पहुंचाने की न सोचो । इससे यद शिक्षण लो कि ठम इस देहवल चादिकके पुरुपार्थकी निरर्थकं जानकर पुण्यकार्यको ही साधक जानो । उपदेश यह दिया है कि पवित्र भाव वनानेके कास करो। देहबल सिद्धि न करेगा। द्रव्य पुण्यकर्मकी जो वातत की गई है वष द्र्य एमं अचेतन है, उसको करनेका तात्पय अपने परिणामोके निर्मल बनानेसे लेना है, क्यो कि परिणामोंकी विशुद्धिके निमित्तसे ही तो पुस्यवंव होता है ना और उसके उद्यकालमे समृद्धियां होती हैं ।




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