दक्षिण के सत भाग 1 | Dakshin Ke Sat Bhag 1

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Dakshin Ke Sat Bhag 1  by अज्ञात - Agyat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मसत नमभ्माद्टवार्‌ 'में भी संगृहीत हैं, जिसे आंध्रगीवाण सहखम” कहते हैं। इसी प्रकार 'कन्नड भाषा में भी इसकी रचना हुई है। इन विभिन्न भाषाओं की रचनाओं से ज्ञात होता है कि तिस्वायमोक्ि का काव्य-सौंदर्य, साहित्यिक स्वाद, अथ অ লান জী सब कुछ अतुलतीय बन पड़ा है। तिहवायमोद्ि श्रेप्ठतम रचना है | अतएव अन्य श्रेष्ठ तमित्ठ ग्रंथों के लेखक इस तिरुवाय मोहि में साहित्य, व्याकरण, अलंकार, रस, छंद आदि के लिए उदाहरणों का उल्लेख 'करते हैं। सचमृच तमिल भाषा में ही नहीं, भारत की अन्य भाषाओं में 'भी तिर्वायमोलि का श्रेष्ठ स्थात है। यह तमिल भाषा-भाषियों के लिए बड़े गवं की बात ই। 'जोवन-दर्शन : नम्माद्धवार्‌ कौ रचनाओं से उनके जीवन के बारे मे ओौर भी बतं मालूम होती हैँ । कथा प्रचलित है कि नम्माद्धवार के माता-पिता श्रीकारि- यार और उड्यनगैयार संतान के विना दुःखी थे । तिरुक्कुरंगुडि के भगवान 'नंबि से प्राथना कर, उनको कृपा से नम्मा्टवार को प्राप्त किया । “कोडुंगार शिलेयार तिरुकोछक्रुवार कोलेयिल वेय कडुंगा लिलव्गर तुडिप्डुड कौवे त्तरुविनैयेत्‌ नेडंगालमुम्‌ कष्णन्‌ नीणमलरुप्पादम्‌ पर विप्पेंट्र नोडंगालों चियुम्‌ इडेयिल्मान्‌ चेन्र सूद्धकडमे । यह सैंतीसवाँ पद है। नायक के. साथ जाते समय का है। इसमें जायिका को माता अपनी पुत्री के नायक के साथ चले जाने से दु:खित होती है। यहाँ नम्माक्ृतार ने एक नायिका की स्थिति में अपने को पाकर उसी परिस्थिति में नायिका का नायक के साथ चले जाने मे उसकी माता कितने दुःख का अनुभव करती है--यह्‌ वर्णित किया है। माता अपनी पूत्री के प्रति वात्सल्य के कारण जो गाती है, वह अवतारी पुरुष नम्माव्यवार के मुंह से निकला है। उपर्युक्त पद में अंतिम दो पंक्तियाँ---नेडुंगालमुम्‌ कण्णन्‌ 'नीणमलर प्पादम्‌ परविप्पेंट्र इठछमान्‌, नोडुंगालों चियुम्‌ इडे इव्ठमान्‌ ” अर्थं




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