त्याग - पत्र | Tyag-patra

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Tyag-patra by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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त्याग-पत्र रहा है। वह मेरे सामनेसे होकर श्रपने कमरेमें चली गई। जाते जाते द्वारपर रुकीं और जोरसे हाथके बेंतकी दालानमें फेंक दिया | बेंत मेरे पास श्राकर गिर गया । मेरी छुछ भी समझमें न श्रा रहा था । मैं सकपकाया-सा खड़ा था । थोड़ी देर वाद में साहसपूर्वक उस कोठरीमे गया। देखता क्या हूँ कि वहाँ घुभ्ा ओऔधी डइुई पढ़ी है । उनकी साड़ी इधर उधर हो गई है श्रौर बदनका कपड़ा वेहृद मारसे भीना हो गया है ) जगह-जगह नील उभर है । कहीं- कहीं लट्ठू भी छुलक श्राया है | चुद गुम-सुम पढ़ी है । न रोती हैं, न सुबकती हैं । वाल बिखेरे है श्रौर घरतापर पढ़ी दोनों वॉहोंपर माथा टिका है । मुझे वहों थोड़ी देर खड़ा रहना भी असद्य हो गया । मुमसे कुछ भी नहीं बोला गया | घुश्माके गलेसे लगकर में वहाँ थोड़ा रा लेता तो ठाक होता । पर वह संभव न हुआ । मैं दवे पॉव लोट आया । बद्द दिन था कि फिर घुश्माकी हँसी मैंने नहीं देखी । इसके पॉचि-छुद्द महीने वाद चुश्माका व्याह हो गया । मेनि जल्दी-जल्दी तत्परताके साथ सब व्यवस्था कर दी । 'ुआआआका उसी दिनसे पढ़ना छूट गया था । वह उस दिनसे सीने-पिसोने; काड़ने-चुद्दारने ्ौर इसी तरहके श्रौर कामोंमें झात भावसे लगी रहती थीं । काम करते रहदनेके भ्रर्तिरिक्त उन्हे और किसी वातसे मतलब न था । न किसीकी निगाहें पढ़ना प्वाइती थीं । कपड़ा कोई धोतरीका घुला नया पहनतीं तो उसे जल्दी मेला भी कर लेती थीं । मुक्‍कसे वद्द तब बची-वची




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