भारतीय दृष्टि से विज्ञान शब्द का समन्वय | Bhartiya Drstikon Se Vigya Shabd Ka Shamanvya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उस দি আটক স্টপ ~> 7 ~= ও সপ = -~---= ~ ------- | १ | + प्रमाणित है. कि, नानात्त्व-भेदत्त्व-प्रथक्त्त-जहाँ मृत्यु का स्वरूपधस्म . है, वहाँ अनेकत्त्व -अभेदत्त्व-अप्रथकत्व-अम्ृत का ही स्वरूपघम्म है। हम सममे नही, अभृत तो क्या, एवं मूप्यु का १ । क्या तासय्ये है हमारा इन अम्ृत-मृत्युशब्दों से ?। श्रूयताम्‌ ! शरुत्वा चाप्यवधाय्येताम्‌ ! গে वेसा यः कश्चित्‌ तत्त, जो कि स्वस्वरूप से निरपेक्तम्थिति- ` भावापन्न है, अतएव ऋपरिषतेनीय है, श्रतएव नित्यक्रूटस्थ है, अतएव शाश्वत दै, अधिचाली है, सनातन है, धरय है, व्यापक्र दै, अ्रस्यनपिनद्ध- ` मात्र से एकान्तः असीम, श्रतएव मायातीत, श्रतएव च विश्वातीत है, .. वही निरपेकज्ष 'एकत्त' से समन्वित रह सकता है, एवं उसे ही हम अमृत' कहा करते हैं, और सम्भवत: अम्वतात्मक उसी एकत्त्वनिबन्धन दत्त्वविशेष का नाम निरपेक्ष- ज्ञान! है | इस सम्बन्ध में यह स्वधा ` अविस्मरणीय है कि--अमृतत्रह्म का यह तटस्थलक्षण ही आपके सम्मुख रक्खा जा रहा है । क्योकि वाङ्मनसपथातीत ऐसे निष्कल ज्ञान- ब्रह्म का स्वरूपलक्षण सम्भव ही नहीं है, जेसा कि-- स॑ विदन्ति न य॑ वेदाः, विष्णुवेंद न वा विधिः | ক & তং यत्तो वाचो नि्बतन्ते अग्राप्य मससा सह ॥ ® दत्यादिरूप से उसकी अनिवेचनीयता स्वतः सिद्ध दै । एवमेव ` सापेज्ष अमृतभाषाध्मक ज्ञान, तथा सापेक्ष मृत्युभावात्मक विज्ञान का स्वरूप ' भी अभी आरम्भ में तो इसी तटस्थभ[ाव का अनुगमन कर रहा है । इसी तटस्थस्वरूप के माध्यम से आगे चलकर सम्भव है हम इन सापेक्ष- : झानविज्ञानभावों के स्वरूपलक्षण-निष्कष पर भी पहुँच सकें। दूसरे द शब्दों में अभी तो केवस दाशेनिक दृष्टिकोण से ही यहाँ ज्ञान-विज्ञान- -




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