दिवाकर दिव्य ज्योति [भाग-12] | Divakar-divya Jyoti [Bhag-12]
 श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
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लेखक  :  
                  Book Language 
हिंदी | Hindi 
                  पुस्तक का साइज :  
15 MB
                  कुल पष्ठ :  
340
                  श्रेणी :  
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)` आग की उपशान्ति | | [ও
तात्पय यह ह कि कृष्णा की आग-किसी भी स्थिति में शान्त `
नदीं होती 1 जसे जलती हुईं आग को वुफाने के लिए ईधन डालना
विपरीत प्रयास है, ठेसा करने से आग बुभती नदी, उलटी वदती
है, इसी प्रकार भोगोपभोगों को सामग्री जुटाने: से वृष्णा मिटती
नहीं, बढ़ती- है । |
वृष्णा की आग मे मनुष्य के सभी सद्गुण जल कर भस्म
दो जति है । ष्णा के वशीभूत द्योकर मनुष्य किसी भी पापःकां
आचरण करते से नहीं चक्रता । सच पूछिए तो कृष्णा सब पापों
का मूल है | कहा है--
तृष्णा.हि सर्वपापिष्ठा, नित्योद्वेगकरी स्मृता |
গননা चेव, घोरा पापाटुवन्धिनी ॥
अर्थात्-यह तृष्णा श्रत्यन्त पापिनी है । रात-दिन मनुष्यं
के हृदय में व्याकुलता उत्पन्न करती रहती है । अधमे की जननो है
` चड़ दीः भयानक श्रौर पाप कर्मो का बन्ध कराने वालो है.। '
. ` ` इय में जब तक तृष्णा विद्यमान रहती है, मनुष्य कभी
- निराऊंलता, और शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता | तष्णा बड़े
: से-बड़ें संम्पत्तिशाली को भो दरिद्र के समांन दुखी चनाती है। कहा
भीहे--
: : को वा दरिद्रो हि! विशालतृष्ण॒: । ।
| प्रश्न किया गया--दुनिया में द्रिद्र किसे समका जाय ? इस
प्रश्न का उत्तर यह दै कि सम्पत्ति के अभावं से कोई दरिद्र नहीं
होता, किन्तु .जिसको तथ्णा बढ़ी हुई है, वह्दी वास्तव में दरिद्र है; ..
भले दी वह करोड़पति ही क्यों न हो ! आंशेंय यह् है विपुल से `
विपुल सम्पत्ति का स्वामी दोकर भी जो मयुष्य दृष्णा का शिकार
 
					
 
					
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