दिवाकर दिव्य ज्योति [भाग-12] | Divakar-divya Jyoti [Bhag-12]

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Divakar-divya Jyoti [Bhag-12] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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` आग की उपशान्ति | | [ও तात्पय यह ह कि कृष्णा की आग-किसी भी स्थिति में शान्त ` नदीं होती 1 जसे जलती हुईं आग को वुफाने के लिए ईधन डालना विपरीत प्रयास है, ठेसा करने से आग बुभती नदी, उलटी वदती है, इसी प्रकार भोगोपभोगों को सामग्री जुटाने: से वृष्णा मिटती नहीं, बढ़ती- है । | वृष्णा की आग मे मनुष्य के सभी सद्गुण जल कर भस्म दो जति है । ष्णा के वशीभूत द्योकर मनुष्य किसी भी पापःकां आचरण करते से नहीं चक्रता । सच पूछिए तो कृष्णा सब पापों का मूल है | कहा है-- तृष्णा.हि सर्वपापिष्ठा, नित्योद्वेगकरी स्मृता | গননা चेव, घोरा पापाटुवन्धिनी ॥ अर्थात्‌-यह तृष्णा श्रत्यन्त पापिनी है । रात-दिन मनुष्यं के हृदय में व्याकुलता उत्पन्न करती रहती है । अधमे की जननो है ` चड़ दीः भयानक श्रौर पाप कर्मो का बन्ध कराने वालो है.। ' . ` ` इय में जब तक तृष्णा विद्यमान रहती है, मनुष्य कभी - निराऊंलता, और शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता | तष्णा बड़े : से-बड़ें संम्पत्तिशाली को भो दरिद्र के समांन दुखी चनाती है। कहा भीहे-- : : को वा दरिद्रो हि! विशालतृष्ण॒: । । | प्रश्न किया गया--दुनिया में द्रिद्र किसे समका जाय ? इस प्रश्न का उत्तर यह दै कि सम्पत्ति के अभावं से कोई दरिद्र नहीं होता, किन्तु .जिसको तथ्णा बढ़ी हुई है, वह्दी वास्तव में दरिद्र है; .. भले दी वह करोड़पति ही क्‍यों न हो ! आंशेंय यह्‌ है विपुल से ` विपुल सम्पत्ति का स्वामी दोकर भी जो मयुष्य दृष्णा का शिकार




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