श्यामू की माँ | Shyamu Ki Maa

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Shyamu Ki Maa by गोपीवल्लभ उपाध्याय - Gopivallabh Upadhyaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सावित्री-व्रत ९ नाना बड़े कर्मनिष्ठ एवं धर्मात्मा व्यक्ति थे। मेरी माता अपने सव भाई ননী में बडी थी और उसपर मेरे नाना-नानी का विशेष प्रेम धा) नैहर से उसे सव लोग प्रमा कहते थे, ओर सचमुच ही बह प्रेम-मयी सव के साथ प्रेम का व्यवहार भी करती थी। कोई उसे “ वाई ' या ' वहन ' भी कहते और वह यथार्थ में उनके लिए बहन जेंसी ही थी | वह “ जीजी * या माता के रूप में ही थी। नेहर के नौकर-चाकर या धान-कटने- वाली स्त्रिया वडी अवस्था मे भी जब उसे “वाई ' या ' जीजी के नाम से पुकारती, तब उसे ये शब्द कितने मीठे लगते थे, यह वतछा सकता असमव हे । इन नामो से पुकारने मे जो आन्तरिक स्नेह था, उसे हृदय ही अनुमव कर सकता था। मेरी माता के दो छोटे भाई और एक गहन भी थी। मेरी नानी अस्यत नियमित जीवन वितानेवाली कार्यदक्ष महिला थी। उसके घर के वर्तन आईने की तरह चमकते थे। मेरी माता का विवाह बचपन ही मे हो गया था । सुसरालवाले श्रीमान्‌ छोग थे, और वे सब गाँव में सरदार माने जाते थे, अथवा कम से कम वे तो अपने को सरदार ही समझते थे। माता के शरीर पर सोने-मोती के आभूषण गोभा देते थे ग्लेमे हार, कंठी, सतलडी आदि सव कुछ थे। वह सुख-सम्पन्न घर या हरे-भरे गोकुछ मे विचरती थी । सुसराल में उसका नाम यश्योदा रखा गया था|” सुसराल में रहते हुए ही वह छोटी से वड़ी हुई थी । वहाँ उसके लिए किसी भी वातकी कमी नही थौ 1 खाने-पीने ओर पहनमे-आठने के लिए सव कुछ अच्छा ही था । सयुक्त-परिवार होने से घर में काम-काज भी पूरा था। किन्तु उत्साह-युक्त परिस्थिति एव सहानुभूति के वातावरण में दिनरात काम करते रहने पर भी मनृष्य को उकताहट नहीं होती; वल्कि और अधिक काम करने मे उसे धन्यता के साथ-साथ आनब्द ही प्राप्त होता है। रु मित्रों! भेरे पिता पूरे १७-१८ वर्ष के भी न हों पाये थे कि देवयोग से उनपर गृहस्थी का सब भार जा पड़ा। क्योकि मेरे दादाजी ~ ^ कन्या का विवाह हो जाने पर सुसराछू में उसका दूसरा नाम रखते की प्रथा महाराष्ट्र मे ह ।--अनु ० ।




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