सूरदास एक अध्ययन | Surdas Ek Adhyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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क सर छा कपा-सज्ञटन श्६ षदे हगि । परन्तु इन न्ये, प्रसंगो में वसी स्थूलता नहीं है। ये कवि के काब्य को सबसे उत्कृष्ट रूप में हमारे सामने रखते हैं। इन नवीन प्रसंगों के सम्बन्ध में कई समस्‍्याएँ हैं : (१) क्या ये प्रथमत: सूर की उपञ्ञ हैं और उनसे संप्रदाय में প্রা हैं या सूर ने न्दं उसी तरह लिला है जिस तरदद अप्ट््याप के अन्य कवियों ने इन्हें बसंत कीर्तेन के लिये लिखा ? (२) यदि ये सूर की उपञ्ञ हैं तो उनका मंतव्य क्‍या है? वास्तव में ये प्रसण मौलिक हैं । साहित्य की परम्परा में पहली थार इनका दशेन अप्टछाप के कवियों में ही होता है। लगभग सभी अष्टछाप के कवियों के पद इन पर मिलते हैं। जहाँ तक कह सकते हैं, क्ज-प्रदेश में इस प्रकार के कृष्णलीला फे पद দ্য रहे होंगे। क्ष्ण-राघा को होली, फाग, हिंडोल अजनदेश में अवश्य प्रसिद्ध दॉंगे। इसलिये सूर मे संयोग की पराकाष्ठा चित्रित करने फे लिये उनका हौ रूपक प्रदण किया । फागुक्रोड़ा की समाप्ति पर सूर गाते हैं-- श्रगु संग करि रि रस राख्यो । रो न मन युवतिन फे ढ्राझ्यों सस्ता-खग सबफोे सुख दीनो । नरमारा মল হি ছবি আনা, जो হি माव ताहि हरि तेसे हित को द्वित कंटक को च] मेद्‌ यशोदा बालक खान्यो। गोपी कामस्य कर मान्यो स्पष्ट दै कि सूर ने इस सिद्धांत को कथा में हो गूँथ दिया दै। हो, फूलडोल संभव है याद में गा गया दो। फूलडोल बन्लभकुल का प्रधान उत्सव है । उसका आरम्भ सूर दी की [8 ক ছা হীনা। লূত ন एक सुन्दर दिंडोलअसंग लिखा है, परन्तु यइ फूलड्ोल नहीं है, विश्वकर्मा का गदा हुआ स्वर दिशेल है। जो दो, यह निश्चित है थललमकुल के नित्य और नैमित्तिक आयोजन पर सूर की कल्पना भौर उनके काज्य की छाप है। र




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