एकादश स्कन्ध | Ekadash Skandh

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Ekadash Skandh by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१.५९ तऋ्र.ष्रयोका श्चाप मत्स्यो गृहीतो मस्स्यध्नैजलिनान्यैः सहार्णवे । तस्योदरगतं रोहं' स शल्ये छन्धकोऽकरोत्‌ ॥ २३ ॥ मछली मारनेवाले मछुओंने समुद्रमें दूसरी मछलियोंके साथ उस मछलीको भी पकड़ लिया। उसके पेटमें जो लोहेका टुकड़ा था, उसको जरा नामक व्याघने अपने बाणके नोकमें ल्गा लिया ॥ २३॥ भगवाजञ्ज्ञातसर्वाथ ईश्वरोऽपि तदन्यथा | कतुं नेच्छद. विप्रशापं कालरप्यन्वमोदत ॥ २४ ॥ भगवाच्‌ सब कू जानते थे। वे इस शापको उलट भी सकते थे। फिर भी उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा । काल- रूपधारी प्रभूने ब्राह्मणोके शापका अनुमोदन ही किया ॥ २४॥ इति श्रीमद्धायवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेक्ा दश्चस्कन्पे म्रथमो.ऽभ्यायः ॥ ¢ ॥ १. ढोदं शठेषु टु° ।




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