आयाम | Aayam
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
246
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)= নু
स्वाभाविक गुण है । कविता मे किसी भी माव को स्वाभाविक वक्रता के साथ हो
प्रस्तुत किया जाता है । यहाँ मने वक्रता के साथ श्वामाविक' प्रान्द को जोड़कर कृष्ट
कल्पना पर श्राश्चित वक्रता से भिन्न करने का प्रयत्त किया है। भतः, सभी श्र॒लंकारो
के वक्रोक्ति का समावेश पश्रवश्य रहता है, चाहे वह स्वामाविक हो अवथा कंष्ट-
कल्पना पर प्राश्नित हो-।
श्ररस्त्र ने श्नपने ग्रथ ्पोयेटिक्स' मे एक स्थान पर् कठा है कि “प्रत्येक वस्तु
जो श्रपनी स्वामाविक सरल बोलने की विधि से विलग हो जाय, वह काव्य है 1
यह कथन वक्रोक्ति के रूप से समानता रखता है| दूसरी ओर कुछ रोमांटिक
कवियो--जैसे वर्ढ सवर्थ तथा कॉलरिज का वक्रोक्ति से विरोध था । वे ग्राम्य-जीवन
की साधारण मापा के प्रति श्रधिक श्राकृष्ट ये 128 परन्तु इनके -काव्य मे मी स्वामाविकं
तथा सरल वक्रता का समवेश श्रवश्य था जिसे उन्होने ग्रामीण जगत् की निष्कपट
सरलता की संज्ञा दी है 1
दस प्रकार वक्रोक्ति, भ्रसलकार श्रौर काव्य-मापा का एक झावश्यक गुण
है । प्रतीक के लिए भी वक्रोति का एक विशिष्ट स्थान है, जो उसके प्रतीकार्थ की
सापेक्षता मे हो ग्राह्म है। यह तथ्य रीतिकाल तथा प्राघुनिक काल मे प्रत्यक्ष
रूप से प्रकट होता है। प्रतीक की वक्ता उसके प्र में निहित है। यदि प्रतीक की
यक्ता मे, प्रस्यापना (707०७१०) का स्वरूप मुखर न हो सका, तो वह प्रतीक
न रहकर केवल शव्द या वस्तुमात्र हौ रह जायगा ।
प्रलंकार ध्चौर वश्ोष्ि
कु तक की परिभाषा से स्पष्ट होता है कि सालंकृत शब्द ही काव्य की शोमा
है। वक्रोवित ही. शब्द उसके अर्थ को सार्जकृत कर, भर्थे,-गरिमा को द्विगुरिति कर
देता है । भलंकारों मे णव्द को यक्ता काव्य-प्रस्थापनाझों को रससिक्त कर देती है ।
विविध प्रकार के काव्यालंकार वक्रोक्ति के रूप है । जहाँ तक रस का सम्बन्ध है,
कुतक ने उसे वक्ता पर भ्राश्चित माना है और उसे “रसवत् अलंकार” मे समाहित
क्या दै ° प्रतः रस का उद्रेक वक्ता पर भ्रवलित है) परन्तु रख के लिये केवल-
मात्र वक्रता भ्रावश्यक नही है 1 शब्द-प्रतीक की सावमूमि में वक्रता की स्वामाविक
परिणति ही उसे भलंकारगत-प्रतीक की श्रेणी तक ला सकती है । श्रत मे, यह्
झ लकूत शब्द-वक्रोक्ति का प्रोचित्य इसी तथ्य में समाहित रहता है कि वह किस
सीमा तक “रसानुभुति' में सहाय हो सका दै । अ्रप्रस्तुत-विधान, अलंकार का अभिन्न
भग दै । जच प्रस्तुत स्वतस्त्र रूप-से भलंकारों के भावरण में-प्रमुवत होते हैं, तो
उन्की- पफलता फा-रहस्प वकोबित भी कहा जा सकता है । मेरे-विचार से. जिन
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